"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 123वां श्लोक"
"कारण शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
सर्वप्रकारप्रमितिप्रशान्ति-र्बीजात्मनावस्थितिरेव बुद्धेः ।
सुषुप्तिरेतस्य किल प्रतीतिः किञ्चिन्न वेद्मीति जगत्प्रसिद्धेः ॥ १२३॥
अर्थ:-जहाँ सब प्रकार की प्रमा (ज्ञान) शान्त हो जाती है और बुद्धि बीज रूप से ही स्थिर रहती है, वह सुषुप्ति अवस्था है इसकी प्रतीति 'मैं कुछ नहीं जानता'- ऐसी लोक-प्रसिद्ध उक्ति से होती है।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने सुषुप्ति की गहन अवस्था का विवेचन किया है। जब जाग्रत और स्वप्न अवस्था में बुद्धि बाह्य या आंतरिक विषयों की ओर प्रवाहित होती है, तब विभिन्न प्रकार की प्रमाएँ अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान आदि ज्ञान की गतिविधियाँ निरंतर चलती रहती हैं। किन्तु सुषुप्ति में ये सब ज्ञान प्रक्रियाएँ पूर्णतः शान्त हो जाती हैं। बुद्धि की सारी वृत्तियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं और केवल बीज रूप में रहती हैं। इस बीज रूप का अर्थ है कि वे पूर्णतः नष्ट नहीं होतीं, केवल सुप्तावस्था में रहती हैं और अनुकूल अवसर पाकर पुनः प्रकट हो सकती हैं। यही कारण है कि जाग्रत अवस्था में लौटते ही जीव फिर से वही राग-द्वेष, वासनाएँ और संस्कारों के साथ कार्य करना शुरू कर देता है।
सुषुप्ति की यही विशेषता है कि उसमें जीव किसी भी प्रकार का विशिष्ट अनुभव नहीं करता। न तो वह सुख-दुःख का भान करता है, न ही संसार के विषयों का, और न ही आत्मा के साक्षात्कार का। इसीलिए जब कोई व्यक्ति गहरी नींद से जागता है तो सामान्यतः कहता है – “मैं कुछ नहीं जानता था, बस सो रहा था।” यह “कुछ नहीं जानना” ही सुषुप्ति की सबसे प्रमुख पहचान है। परंतु यह अज्ञान आत्मा का धर्म नहीं है, बल्कि बुद्धि की स्थिति है, जो बीज रूप में अव्यक्त रहती है।
जाग्रत और स्वप्न में जीव को अनुभव होता है – “मैं देख रहा हूँ”, “मैं सुन रहा हूँ”, “मैं सोच रहा हूँ”। परंतु सुषुप्ति में केवल इतना ही अनुभव रहता है कि “मैं कुछ नहीं जानता था।” इसका अर्थ है कि ‘साक्षी चैतन्य’ तब भी विद्यमान रहता है, अन्यथा इस “न जानने” का स्मरण ही संभव न होता। आत्मा कभी भी अनुपस्थित नहीं होती, वह तो नित्य साक्षी रूप से प्रत्येक अवस्था में प्रकाशित रहती है। किन्तु बुद्धि, जो ज्ञान का उपकरण है, सुषुप्ति में अपनी सभी वृत्तियों को संकुचित कर लेती है और बीज रूप में स्थित होती है।
यह बीज रूप ही कारण शरीर का लक्षण है, जो अव्यक्त कहलाता है। इसमें वासनाएँ, कर्मफल और संस्कार सब अव्यक्त रूप में रहते हैं। इसीलिए इसे “बीजात्मना अवस्था” कहा गया है। जैसे बीज में सम्पूर्ण वृक्ष की संभावना छिपी रहती है, वैसे ही कारण शरीर में जीव के संपूर्ण अनुभवों का भण्डार सुप्त अवस्था में रहता है। जाग्रत और स्वप्न केवल उसी बीज का विस्तार और अभिव्यक्ति हैं।
सुषुप्ति अवस्था को समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह आत्मा के स्वरूप की ओर संकेत करती है। इसमें जीव बाह्य जगत् और आंतरिक मनःप्रपंच दोनों से परे हो जाता है और केवल शुद्ध शान्ति का अनुभव करता है। हालांकि यह शान्ति आत्मज्ञान नहीं है, क्योंकि इसमें अज्ञान भी उपस्थित है। किन्तु यह अवस्था आत्मा के साक्षित्व का अनुभव कराती है, क्योंकि जाग्रति के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि “मैं सोया था, मैंने कुछ नहीं जाना।” यह “मैं” का अनुभव आत्मा की निरन्तरता को सिद्ध करता है।
इस प्रकार, शंकराचार्य बताते हैं कि सुषुप्ति न तो ज्ञान है और न ही मात्र अभाव, बल्कि यह बुद्धि की निष्क्रिय स्थिति है, जिसमें आत्मा का साक्षी भाव अप्रकट रहते हुए भी विद्यमान रहता है। जीव इस अवस्था में पूर्ण विश्रान्ति पाता है, किन्तु जब तक अज्ञान बीज रूप में विद्यमान है, तब तक पुनः जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ प्रकट होती रहेंगी। आत्मज्ञान का उद्देश्य इसी बीज रूपी अज्ञान का पूर्ण नाश करना है, जिससे जीव की यात्रा समाप्त होकर ब्रह्मानुभव की नित्य अवस्था प्राप्त हो सके।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!