"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 124वां श्लोक"
"अनात्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
देहेन्द्रियप्राणमनोऽहमादयः सर्वे विकारा विषयाः सुखादयः ।
व्योमादिभूतान्यखिलं च विश्व-मव्यक्तपर्यन्तमिदं ह्यनात्मा ॥ १२४॥
अर्थ:-देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि सारे विकार, सुखादि सम्पूर्ण विषय, आकाशादि भूत और अव्यक्तपर्यन्त निखिल विश्व-ये सभी अनात्मा हैं।
शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक आत्मा और अनात्मा के भेद को स्पष्ट करता है। श्लोक में कहा गया है कि देह, इन्द्रियाँ, प्राण, मन और अहंकार आदि सभी विकार अनात्मा हैं। इसी प्रकार सुख-दुःख जैसे अनुभव, विषय-भोग की प्रवृत्तियाँ, पाँच भूत – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – तथा उनका विकासक्रम, यहाँ तक कि अव्यक्त या कारण अवस्था तक सम्पूर्ण विश्व भी आत्मा नहीं है। यह सब परिवर्तनशील, नश्वर और अनुभव का विषय है, जबकि आत्मा साक्षी, शुद्ध, अपरिवर्तनशील और सदा विद्यमान है।
देह को देखें तो यह केवल पंचभूतों का संयोग है। इसका आरम्भ जन्म से होता है और अन्त मृत्यु में होता है। आत्मा इसका साक्षी है, किन्तु स्वयं देह नहीं है। इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करने का माध्यम मात्र हैं। दृष्टि से हम रंग और रूप देखते हैं, श्रवण से ध्वनि सुनते हैं, परन्तु इन इन्द्रियों से परे वह सत्ता है जो इनके द्वारा प्राप्त ज्ञान को जानती है। वही आत्मा है। प्राण शरीर को जीवित रखते हैं, श्वास-प्रश्वास के रूप में उनका कार्य चलता है, किन्तु प्राण भी आत्मा नहीं है, क्योंकि प्राण का उदय और लय होता है।
मन विचारों का क्षेत्र है। इसमें संकल्प-विकल्प, कामना, क्रोध, मोह आदि उत्पन्न होते हैं। अहंकार स्वयं को "मैं" मानकर देह और मन से जोड़ता है। यह अहंता और ममता ही बन्धन का कारण बनती है। परन्तु मन और अहंकार का उत्थान और पतन निरन्तर होता रहता है। वे स्थायी नहीं हैं। जो अस्थायी है, वह आत्मा नहीं हो सकता। आत्मा वह है जो इन सबका साक्षी बना रहता है, परन्तु स्वयं इनमें से कुछ भी नहीं है।
सुख और दुःख भी बाह्य परिस्थितियों और मन की वृत्तियों पर निर्भर हैं। जब कोई प्रिय वस्तु मिलती है तो मन सुखानुभव करता है, और जब वियोग या अप्रिय परिस्थिति आती है तो दुःख का अनुभव होता है। परन्तु आत्मा न सुख है न दुःख; आत्मा उन अनुभवों का जानने वाला है। इसी प्रकार बाहरी पाँच भूतों से निर्मित सम्पूर्ण विश्व, जिसमें स्थूल और सूक्ष्म जगत् दोनों सम्मिलित हैं, आत्मा नहीं है। यह निरन्तर परिवर्तनशील है, इसलिए आत्मा से भिन्न है।
शास्त्र आगे यह भी कहते हैं कि अव्यक्त या कारण अवस्था, जिसे मायाशक्ति कहते हैं, जहाँ सब कुछ बीज रूप में लीन रहता है, वह भी आत्मा नहीं है। क्योंकि वह भी परिवर्तनशील है और ज्ञान का विषय बन सकती है। आत्मा तो वह है जो कभी परिवर्तित नहीं होती, जो साक्षी चैतन्य रूप में सदा विद्यमान रहती है।
इस प्रकार शंकराचार्य हमें सिखाते हैं कि जो भी वस्तु अनुभव के रूप में आती-जाती है, वह अनात्मा है। आत्मा उससे परे है, क्योंकि आत्मा साक्षी, निरन्तर, शुद्ध और नित्य है। विवेक के माध्यम से साधक जब देह, इन्द्रिय, मन, अहंकार और सम्पूर्ण विश्व को "अनात्मा" मानकर अलग कर देता है, तभी आत्मा का बोध सम्भव होता है। यह भेदज्ञान ही मुक्ति का द्वार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!