"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 125वां श्लोक"
"अनात्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम् । असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ॥ १२५ ॥
अर्थ:-माया और महत्तत्त्व से लेकर देह पर्यन्त माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरुमरीचिका के समान असत् और अनात्मक जान।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का अत्यंत गूढ़ और गम्भीर संदेश प्रस्तुत करता है। आचार्य शंकर यहाँ साधक को यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि यह सम्पूर्ण जगत, जिसमें महत्तत्त्व से लेकर स्थूल देह तक सब सम्मिलित है, वास्तव में मायाकार्य है। माया वह अद्भुत शक्ति है जो ब्रह्म के एकत्व स्वरूप को ढककर अनेकत्व का आभास कराती है। जब साधक आत्मा से भिन्न किसी भी वस्तु को सत्य मान लेता है, तब वह मोह और बन्धन में फँस जाता है। इसीलिए आचार्य यह स्पष्ट कर रहे हैं कि माया और उसके कार्य, चाहे वे कितने ही विशाल और प्रभावशाली क्यों न प्रतीत हों, वस्तुतः असत् और अनात्मा हैं।
महत्तत्त्व वह प्रथम विकार है जो अव्यक्त प्रकृति से प्रकट होता है। यही आगे चलकर अहंकार, मन, इन्द्रियाँ और पंचमहाभूतों का कारण बनता है। इन सबसे स्थूल देह की रचना होती है। जब हम अपनी पहचान इस देह और इसके सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि से करते हैं, तब हम माया-जाल में फँस जाते हैं। आचार्य शंकर यहाँ साधक को यह स्मरण दिलाते हैं कि यह सम्पूर्ण क्रम, अव्यक्त से लेकर देह तक, आत्मा से भिन्न है और मिथ्या है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है, शेष सब उसका आभास है।
माया की तुलना यहाँ मरुस्थल की मरीचिका से की गई है। जैसे रेगिस्तान में दूर से जल दिखाई देता है पर वास्तव में वहाँ जल नहीं होता, वैसे ही यह जगत सत्य प्रतीत होता है किन्तु जब गहन विवेक से देखा जाता है तो इसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं मिलता। यह केवल अज्ञानवश सत्य लगता है। अज्ञान दूर होने पर ज्ञानी को यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है।
इस श्लोक का साधक के लिए सीधा संदेश यह है कि उसे अपने अभ्यास और ध्यान में निरंतर यह स्मरण रखना चाहिए कि देह और जगत असत् हैं। वे केवल अनुभव के स्तर पर उपस्थित हैं, वास्तविकता में नहीं। यदि साधक उन्हें सत्य मानकर उनसे आसक्त हो जाएगा, तो मुक्ति का मार्ग कठिन हो जाएगा। लेकिन यदि वह इन्हें मरीचिका की भाँति मिथ्या जान लेगा, तो धीरे-धीरे उसकी आसक्ति समाप्त होगी और आत्मा की ओर दृढ़ दृष्टि टिकेगी।
वेदान्त का सम्पूर्ण प्रयोजन यही है कि जीव यह पहचान ले कि वह न देह है, न इन्द्रिय है, न मन है और न अहंकार। वह इन सबसे परे शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा है। जब तक यह पहचान दृढ़ नहीं होती, तब तक जीव माया द्वारा उत्पन्न जन्म-मरण और सुख-दुःख के चक्र में घूमता रहता है। किन्तु एक बार जब यह बोध हो जाता है कि सब मायाकार्य है और आत्मा ही सत्य है, तभी मोक्ष संभव होता है।
अतः इस श्लोक का मर्म यह है कि साधक को निरंतर अभ्यास से यह दृढ़ कर लेना चाहिए कि सम्पूर्ण दृश्य जगत अनात्मा और मिथ्या है। उसे मरुमरीचिका के समान असत् समझना ही विवेक है। जब यह विवेक हृदय में स्थिर हो जाएगा, तब आत्मा का बोध सहज ही प्रकट होगा और अद्वैत सत्य की अनुभूति संभव होगी। यही शंकराचार्य का संदेश है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!