"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 126वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६ ॥
अर्थ:-अब मैं तुझे परमात्मा का स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकर मनुष्य बन्धन से छूट कर कैवल्यपद प्राप्त करता है।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अत्यंत महत्वपूर्ण सत्य की ओर संकेत करता है। आचार्य शंकर यहाँ साधक को यह बताना चाहते हैं कि परमात्मा का स्वरूप जानना ही समस्त बंधनों से मुक्त होने का उपाय है। संसार में जो कुछ भी हमें बंधन में डालता है, वह अज्ञान से उत्पन्न है। यह अज्ञान हमें देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार तक ही सीमित कर देता है। हम अपने को सीमित जीव मानते हैं और बार-बार जन्म-मरण के चक्र में बंधते रहते हैं। जब तक परमात्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात नहीं होता, तब तक यह बंधन समाप्त नहीं होता। इसलिए आचार्य शंकर यहाँ स्पष्ट करते हैं कि परमात्मा का स्वरूप जानना ही मोक्ष का द्वार है।
परमात्मा का स्वरूप न तो इन्द्रियों से देखा जा सकता है, न मन से समझा जा सकता है और न ही बुद्धि से गृहीत किया जा सकता है। वह सब इन्द्रिय और मन-बुद्धि का आधार है। वही आत्मा सभी के भीतर समान रूप से विद्यमान है। उपनिषदों में कहा गया है—"शृण्वन्ति श्रोत्राणि न शृणोति" अर्थात् सभी श्रोताओं को सुनने की शक्ति देने वाला स्वयं बिना कान के ही सुनता है। यही स्थिति देखने, सोचने और जानने की शक्तियों के संबंध में भी है। इस प्रकार परमात्मा इन्द्रियों के पार, मन-बुद्धि के पार, अव्यक्त कारण शरीर के पार स्थित, शुद्ध चैतन्य स्वरूप है।
मनुष्य जब अपने को देह-मन-बुद्धि से भिन्न समझकर इस चैतन्य स्वरूप से तादात्म्य करता है, तभी वह बंधन से मुक्त हो जाता है। यह ज्ञान केवल शास्त्र पढ़ने या तर्क करने से नहीं आता, बल्कि साधना, विवेक, वैराग्य और आत्मचिन्तन से प्राप्त होता है। जैसे अंधेरे में दीपक जलते ही अंधकार मिट जाता है, वैसे ही आत्मज्ञान के प्रकाश से अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाता है और जीव समझ लेता है कि वह कभी बंधा हुआ था ही नहीं। बंधन केवल अज्ञान का भ्रान्ति-जन्य अनुभव था।
कैवल्य का अर्थ है—पूर्ण अकेलापन, जिसमें आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता। यह अकेलापन उदासी या विरक्ति नहीं है, बल्कि पूर्णता और अनन्तता का अनुभव है। जब साधक जान लेता है कि आत्मा ही ब्रह्म है, वही सत्य स्वरूप है, तब उसे किसी बाहरी वस्तु की आवश्यकता नहीं रहती। तब न उसे किसी से भय होता है, न किसी से आशा रहती है और न किसी के प्रति आसक्ति। वह अपने स्वभाव में ही स्थित होकर अनन्त आनन्द का अनुभव करता है। यही कैवल्य है, यही मोक्ष है।
इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि परमात्मा का स्वरूप जानना ही जीवन का परम लक्ष्य है। जितनी भी साधनाएँ, यज्ञ, तप, जप, ध्यान, उपासना आदि किए जाते हैं, उनका उद्देश्य केवल इस आत्मज्ञान की प्राप्ति है। जब यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तो जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। जीव जान लेता है कि न वह जन्मा है और न मरेगा, बल्कि वह तो सदा से ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिपूर्ण आत्मा है।
अतः साधक को चाहिए कि वह अपने जीवन का सर्वोपरि ध्येय आत्मस्वरूप की प्राप्ति को बनाए। जब यह ज्ञान दृढ़ हो जाता है, तब संसार के बंधन अपने आप मिट जाते हैं। जैसे सूर्य उदय होते ही अंधकार और तारे लुप्त हो जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान होते ही बंधन का अनुभव मिट जाता है और जीव कैवल्य पद को प्राप्त करता है। यही इस श्लोक का सार और उपदेश है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!