"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 127वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः । अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥ १२७ ॥
अर्थ:-अहं-प्रत्यय का आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी पंचकोशातीत है।
यह श्लोक आत्मा के स्वरूप का अत्यंत गहन विवेचन प्रस्तुत करता है। शंकराचार्य यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि जो वस्तु हमारे अनुभव का आधार है, वह नित्य और स्वयं-प्रकाश है। "अहं प्रत्यय" अर्थात् "मैं हूँ" का बोध हर समय विद्यमान रहता है। चाहे जाग्रत अवस्था हो, चाहे स्वप्न, अथवा सुषुप्ति—यह अनुभूति कभी नष्ट नहीं होती। वस्तुतः यह 'मैं हूँ' का बोध ही उस शाश्वत सत्ता की झलक है, जो परिवर्तनशील देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि से परे है। इसी आत्मस्वरूप के आधार पर मनुष्य का सम्पूर्ण अनुभव संसार चल रहा है।
इस आत्मा को शास्त्र "अवस्थात्रयसाक्षी" कहते हैं, अर्थात् जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में साक्षी बना रहता है। जाग्रत अवस्था में जब हम बाह्य जगत् के विषयों को इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं, तब भी यह आत्मा साक्षी रहता है। स्वप्न में जब बाहरी इन्द्रियों का उपयोग नहीं होता, और केवल अंतःकरण के संस्कारों से दृश्य उत्पन्न होते हैं, तब भी वही आत्मा साक्षी है। सुषुप्ति में जब न तो जगत का बोध रहता है, न सुख-दुःख का अनुभव होता है, तब भी आत्मा बना रहता है; तभी तो जागने पर मनुष्य कहता है – "मैं अच्छा सोया, कुछ नहीं जान पाया।" यह कथन इस बात का प्रमाण है कि सुषुप्ति में भी कोई साक्षी सत्ता विद्यमान थी, जिसने उस अज्ञान की अवस्था को भी जाना।
आत्मा पंचकोश से भी भिन्न है। यह शरीर अन्नमय कोश है, प्राणों का समूह प्राणमय कोश है, मन की गतिविधियाँ मनोमय कोश है, बुद्धि और विचारवृत्तियाँ विज्ञानमय कोश है और सुख-अनुभूति से जुड़ा आनन्दमय कोश है। साधारणतः मनुष्य इन्हीं पंचकोशों को अपना 'मैं' मान लेता है, किंतु शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा इन सबसे विलक्षण है। यदि आत्मा शरीर होता, तो शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी नष्ट हो जाता। यदि आत्मा मन या बुद्धि होती, तो मन-बुद्धि की शान्ति के साथ आत्मा भी शान्त हो जाता। किन्तु ऐसा नहीं है; आत्मा तो इन सबका साक्षी है और सदा विद्यमान है।
यह आत्मा न तो उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है। यह नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वरूप है। इसके बिना किसी भी अनुभव की सम्भावना नहीं है। जैसे दीपक के प्रकाश के बिना किसी वस्तु को देखा नहीं जा सकता, वैसे ही आत्मा के साक्षित्व के बिना किसी भी अनुभूति का अस्तित्व सम्भव नहीं। यहाँ शंकराचार्य आत्मा की उस स्थिति को उद्घाटित करते हैं, जहाँ साधक को यह समझ आता है कि उसका वास्तविक स्वरूप शरीर, मन या बुद्धि नहीं, बल्कि इन सबका साक्षी चैतन्य है।
व्यवहार में हम जब कहते हैं "मैं देखता हूँ", "मैं सोचता हूँ", "मैं सोया", तो प्रत्येक वाक्य में 'मैं' का जो मूल तत्व है, वह एक समान है। केवल उसके साथ जुड़े अनुभव बदलते रहते हैं। यही नित्य आत्मा है, जो परिवर्तनशील आवरणों और अवस्थाओं में भी अपरिवर्तित बना रहता है। साधना का उद्देश्य यही है कि मनुष्य इस 'अहं-प्रत्यय' के शुद्ध आधार को पहचान ले और अपने को पंचकोशों से अलग कर सच्चे आत्मस्वरूप में स्थित हो जाए। यही ज्ञान मोक्ष का द्वार है और यही श्लोक का सार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!