"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 128वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
यो विजानाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
बुद्धितद् वृत्तिसद्भावमभावमहमित्ययम् ॥ १२८॥
अर्थ:-जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में बुद्धि और उसकी वृत्तियों के होने और न होने को 'अहंभाव' से स्थित हुआ जानता है।
यह श्लोक आत्मा के साक्षित्व और उसकी निरंतरता को प्रकट करता है। शंकराचार्य यहाँ बताते हैं कि मनुष्य तीन अवस्थाओं – जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति – में रहता है। जाग्रत अवस्था में इन्द्रियों और बुद्धि की वृत्तियाँ सक्रिय होती हैं, स्वप्न में वे सूक्ष्म रूप से कार्य करती हैं और सुषुप्ति में वे सब लीन हो जाती हैं। परंतु इन सब अवस्थाओं में जो एक तत्व अपरिवर्तित रहता है, जो उनके होने और न होने का साक्षी है, वही आत्मा है। यही आत्मा "अहं" के रूप में प्रत्यक्ष होता है। जब जाग्रत अवस्था में बुद्धि और वृत्तियाँ कार्यरत होती हैं, तब भी हम "मैं जान रहा हूँ" कहते हैं। स्वप्न में भी वही अहंभाव अनुभव का आधार बनता है। और सुषुप्ति में जहाँ सब कुछ लीन हो जाता है, वहाँ भी जब हम जागने पर कहते हैं कि "मैं कुछ नहीं जान पाया, गहरी नींद में था", तो यह जानना भी उसी साक्षी की उपस्थिति का प्रमाण है।
इस श्लोक में "अहमित्ययम्" शब्द गहन है। इसका अर्थ यह नहीं कि सीमित देहाधिष्ठित अहंकार ही आत्मा है, बल्कि वह मूल "अहंभाव", जो सभी अनुभवों का आधार है, आत्मा है। देह, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ सब परिवर्तनशील हैं, परन्तु यह साक्षी-चैतन्य अपरिवर्तनीय है। यह चैतन्य प्रत्येक अवस्था में विद्यमान है और सभी स्थितियों में स्वयं को जानता है। यह जानना बाहरी ज्ञान के समान नहीं है, क्योंकि यह आत्मस्वरूप की सहज उपस्थिति है। जैसे दीपक स्वयं प्रकाशित होकर अन्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा स्वयं प्रकाशरूप होकर बुद्धि और उसकी वृत्तियों को प्रकाशित करता है।
जाग्रत अवस्था में हम अनुभव करते हैं कि "मैं देख रहा हूँ, मैं सुन रहा हूँ, मैं विचार कर रहा हूँ।" स्वप्न में हम अनुभव करते हैं कि "मैं आनंदित हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं भाग रहा हूँ।" और सुषुप्ति में भले ही कोई विशेष अनुभव न हो, पर वहाँ भी बाद में अनुभव की स्मृति आती है कि "मैं कुछ नहीं जान पाया, पर सुख का अनुभव हुआ।" इन सबमें एक स्थायी "मैं" बना रहता है। इस प्रकार यह श्लोक साधक को यह समझाने का प्रयत्न करता है कि आत्मा अवस्थाओं से भिन्न है। अवस्थाएँ आती-जाती रहती हैं, पर साक्षी आत्मा कभी नहीं बदलता।
शंकराचार्य का यह कथन साधना की दिशा को स्पष्ट करता है। साधक को यह विवेक करना है कि "मैं वह नहीं हूँ जो बदलता है", बल्कि "मैं वह हूँ जो इन सबका साक्षी है।" जब यह दृढ़ हो जाता है, तब जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता। आत्मा न तो जाग्रत से बँधा है, न स्वप्न से, न सुषुप्ति से; वह तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप है। यही आत्मा परमात्मा का स्वरूप है।
इस श्लोक से यह भी स्पष्ट होता है कि मन और बुद्धि के आधार पर आत्मा को परिभाषित नहीं किया जा सकता। बुद्धि का उदय और लय होता है, पर आत्मा उनका साक्षी होकर नित्य बना रहता है। जैसे आकाश में बादल आते हैं और चले जाते हैं, पर आकाश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वैसे ही आत्मा पर तीन अवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं होता।
अतः साधक को अपने अनुभव में देखना चाहिए कि वह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में एक ही चैतन्य के रूप में स्थित है। यही समझ आत्मज्ञान की ओर पहला कदम है। जब यह दृढ़ हो जाता है कि आत्मा ही शाश्वत साक्षी है और वह किसी अवस्था या विकार से प्रभावित नहीं होता, तब मुक्ति की अनुभूति सुलभ हो जाती है। यही इस श्लोक का गूढ़ संदेश है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!