"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 129वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन ।
यश्चेतयति बुद्ध्यादिं न तु यं चेतयत्ययम् ॥ १२९ ॥
अर्थ:- जो स्वयं सबको देखता है किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता, जो बुद्धि आदि को प्रकाशित करता है किन्तु जिसे बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते।
यह श्लोक आत्मा अथवा ब्रह्म के स्वरूप को अत्यन्त गहन और स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। शंकराचार्य यहाँ यह समझा रहे हैं कि परमात्मा या आत्मा वह सत्ता है जो सबको देखती है, सबमें साक्षी के रूप में विद्यमान है, किन्तु उसे कोई भी देख नहीं सकता। उसका दर्शन न तो इन्द्रियों से सम्भव है, न ही बुद्धि के द्वारा। वह स्वयं प्रकाशित स्वरूप है, सबको प्रकाश देनेवाला है, परन्तु स्वयं किसी अन्य साधन से प्रकाशित नहीं होता। यही आत्मस्वरूप की अद्वितीयता है।
हम जब संसार में देखते हैं, तो हर वस्तु को जानने के लिए इन्द्रियों का सहारा लेना पड़ता है। आँखें रंग-रूप को देखती हैं, कान शब्द को सुनते हैं, और बुद्धि इन सबका विवेचन करती है। किन्तु इन इन्द्रियों और बुद्धि को कार्य करने की शक्ति कौन देता है? वह आत्मा ही है। आत्मा के बिना इन्द्रियों का अस्तित्व निष्प्राण है। जैसे सूर्य के प्रकाश के बिना नेत्र देखने में असमर्थ हो जाते हैं, वैसे ही आत्मा के बिना बुद्धि और इन्द्रियाँ किसी वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकतीं। आत्मा ही सब अनुभवों का आधार है।
यहाँ "जो सबको देखता है" का अर्थ है साक्षीभाव। आत्मा कभी किसी क्रिया का कर्ता नहीं बनती, वह केवल साक्षी रहती है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति – इन तीनों अवस्थाओं में आत्मा सदा समान रूप से विद्यमान रहती है। हम जाग्रत में इन्द्रियों से विषयों को देखते हैं, स्वप्न में मन के संस्कारों से दृश्य उत्पन्न होते हैं और सुषुप्ति में सब लीन हो जाता है। किन्तु आत्मा इन तीनों अवस्थाओं की साक्षी बनी रहती है। यही आत्मा का स्थायी स्वरूप है।
अब विचार करें "जिसे कोई नहीं देख सकता"। इसका आशय यह है कि आत्मा कोई वस्तु नहीं है जिसे इन्द्रिय या बुद्धि की पकड़ में लाया जा सके। वस्तु वही है जो दृष्ट, ज्ञेय या परिग्रह्य हो, जबकि आत्मा साक्षात् द्रष्टा है। द्रष्टा कभी दृष्ट नहीं हो सकता। जैसे आँख स्वयं को नहीं देख सकती, दर्पण की सहायता चाहिए, वैसे ही आत्मा स्वयं को इन्द्रियों द्वारा नहीं देख सकती। किन्तु यहाँ आत्मा को जानने के लिए किसी बाहरी साधन की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि वह स्वयं प्रकाश है।
शंकराचार्य आगे कहते हैं कि आत्मा बुद्धि आदि को चेतना देती है, किन्तु बुद्धि उसे प्रकाशित नहीं कर सकती। यह बिन्दु अत्यन्त सूक्ष्म है। बुद्धि का कार्य है विषयों का विचार करना, परन्तु बुद्धि स्वयं जड़ है। जब आत्मा की सत्ता उस पर परावर्तित होती है, तभी वह कार्यशील होती है। इसीलिए आत्मा को 'चैतन्यस्वरूप' कहा गया है। यह चैतन्य नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। यह किसी साधन से प्राप्त नहीं होता, बल्कि साधनों के माध्यम से अज्ञान का नाश होता है और आत्मा का स्वप्रकाश स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है।
अतः इस श्लोक का सार यह है कि आत्मा ही वह सत्ता है जो सबको प्रकाशित करती है, सब अनुभवों की साक्षी है, परन्तु जिसे कोई जानने का साधन ग्रहण नहीं कर सकता। आत्मा जानने योग्य वस्तु नहीं, बल्कि स्वयं जाननेवाला स्वरूप है। यह न तो दृश्य है, न ज्ञेय, न कर्तव्य; यह केवल साक्षी और चैतन्य स्वरूप है। जो साधक इस सत्य को समझ लेता है, उसके लिए संसार का मोह मिट जाता है और वह आत्मज्ञान के द्वारा मुक्त हो जाता है। यही अद्वैत वेदान्त का परम लक्ष्य है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!