Total Blog Views

Translate

बुधवार, 24 सितंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 130वां श्लोक"



"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 130वां श्लोक"

"आत्म-निरूपण"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

येन विश्वमिदं व्याप्तं यन्न व्याप्नोति किञ्चन । आभारूपमिदं सर्वं यं भान्तमनुभात्ययम् ॥ १३० ॥

अर्थ:-जिसने सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किया हुआ है किन्तु जिसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिस के भासने पर यह आभास रूप सारा जगत् भासित हो रहा है।

यह श्लोक आत्मा अथवा ब्रह्म के स्वरूप का अत्यंत गहन विवेचन करता है। शंकराचार्य यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि वह तत्व ही परम सत्य है जिसने सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त कर रखा है। जगत् के प्रत्येक कण, प्रत्येक सत्ता का आधार वही है। जिस प्रकार आकाश सबको धारण करता है किंतु स्वयं किसी से भी आवृत्त नहीं होता, उसी प्रकार आत्मा सबको व्याप्त करके भी किसी से व्याप्त नहीं होता। यह उसकी अनंतता और सर्वव्यापकता का द्योतक है। जीव और जगत् जो भी अनुभव करते हैं, वह उसी सत्ता की पृष्ठभूमि पर सम्भव है।

वास्तव में यह जगत् आत्मा के प्रकाश से ही भासमान है। जिस प्रकार सूर्य के होने पर समस्त लोक प्रकाशित हो जाते हैं, किन्तु सूर्य किसी से प्रकाशित नहीं होता, उसी प्रकार आत्मा के कारण ही जगत् का अनुभव सम्भव होता है। आत्मा स्वयंप्रकाश है, उसे किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं। बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ सभी आत्मा की उपस्थिति से कार्य करते हैं। परन्तु आत्मा का ज्ञान किसी भी बाह्य साधन या इन्द्रिय से सम्भव नहीं क्योंकि वह सब साधनों का आधार है।

यहाँ शंकराचार्य ने 'आभारूपम्' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है – यह जगत् केवल आभास स्वरूप है। यह आत्मा के प्रकाश में ही प्रतीत होता है किन्तु स्वयं में इसका कोई स्थायी स्वरूप नहीं है। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखता है पर वास्तविकता में वह दर्पण के बाहर स्वतंत्र सत्ता नहीं रखता, वैसे ही यह संसार आत्मा के आलोक में प्रतीत होता है। आत्मा न हो तो न जगत् का ज्ञान हो और न ही उसका अस्तित्व अनुभव में आ सके।

इस श्लोक का एक और गहन बोध यह है कि आत्मा की सर्वव्यापकता को समझते हुए साधक जानता है कि जो कुछ भी अनुभव हो रहा है वह आत्मा के अतिरिक्त कुछ नहीं। आत्मा से भिन्न कोई सत्ता नहीं है। जगत् का सम्पूर्ण अनुभव उसी एक सत्ता का विक्षेप या आभास मात्र है। जब साधक यह जान लेता है कि सब कुछ आत्मा में ही स्थित है और आत्मा किसी से भी सीमित या आवृत्त नहीं होती, तभी उसकी दृष्टि अद्वैत की ओर खुलती है।

यह शिक्षण साधक को वैराग्य और विवेक की ओर ले जाता है। जब वह देखता है कि जगत् का सब अनुभव केवल आभास मात्र है, आत्मा ही एकमात्र सत्य है, तब उसकी आसक्ति बाह्य वस्तुओं से हटने लगती है। उसका मन आत्मा के स्वरूप में स्थिर होने लगता है। यही मोक्ष की दिशा है। आत्मा का ज्ञान होने पर जीव समझ लेता है कि वह नित्य, शुद्ध और सर्वव्यापक सत्ता है, न कि शरीर, मन या इन्द्रियों से सीमित कोई सत्ता।

अतः यह श्लोक हमें यह बोध कराता है कि आत्मा ही सर्वव्यापक है, उससे परे कुछ भी नहीं। वही स्वयंप्रकाश है और उसी से यह जगत् प्रकाशित होता है। जगत् की सत्ता आत्मा पर आश्रित है किन्तु आत्मा स्वतंत्र, निरपेक्ष और अनंत है। इसे जानकर साधक का मोह मिटता है और वह अद्वैत सत्य में स्थित होकर कैवल्य का अनुभव करता है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in