"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 131वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः ।
विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥ १३१ ॥
अर्थ:-जिस की सन्निधि मात्र से देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए-से अपने-अपने विषयों में बर्तते हैं।
यह श्लोक अद्वैत वेदान्त के अत्यन्त गूढ़ सत्य को उद्घाटित करता है। शंकराचार्य यहाँ आत्मा या परमात्मा के स्वरूप को स्पष्ट कर रहे हैं। श्लोक में कहा गया है कि केवल उसकी सन्निधि मात्र से – अर्थात् आत्मा की उपस्थिति से – देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, मानो कोई उन्हें प्रेरित कर रहा हो। वास्तव में आत्मा कोई कर्ता नहीं है, वह केवल साक्षी है, किन्तु उसकी उपस्थिति ही सबको गतिशील कर देती है। जिस प्रकार सूर्य स्वयं किसी कार्य में नहीं लगा रहता, किन्तु उसके प्रकाश मात्र से पृथ्वी पर सभी क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, उसी प्रकार आत्मा की सन्निधि से ही देह और इन्द्रियाँ सक्रिय हो जाती हैं।
मनुष्य का शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि सभी जड़ तत्व हैं। इनका स्वभाव स्वयं चलने-फिरने, सोचने-समझने या अनुभव करने का नहीं है। इनकी गति केवल आत्मा की चेतना से संभव होती है। आत्मा चेतन है, और उसके निकट होने मात्र से यह सब कुछ जीवित और सक्रिय दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, जब तक दीपक जल रहा है, तब तक उसके प्रकाश में हम कार्य कर सकते हैं। जैसे ही दीप बुझता है, सब अंधकार में डूब जाता है। उसी तरह आत्मा के बिना शरीर और इन्द्रियाँ निर्जीव हैं। मृत्यु इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। जब आत्मा शरीर से विलग हो जाती है, तब शरीर अपने सारे उपकरणों सहित निष्प्राण होकर पड़ा रहता है।
यहाँ "प्रेरिता इव" शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण है। शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि आत्मा वास्तव में किसी को प्रेरित नहीं करती, क्योंकि वह साक्षी मात्र है। किन्तु उसकी उपस्थिति में ही देह-इन्द्रिय-मन सक्रिय हो उठते हैं, मानो किसी ने उन्हें प्रेरित किया हो। यह वैसा ही है जैसे चुम्बक के पास आने से लोहे के कण हिलने लगते हैं, यद्यपि चुम्बक उन्हें सीधे-सीधे धक्का नहीं देता। आत्मा का कार्य केवल अपने अस्तित्व से सबको चेतन बनाना है, पर वह स्वयं न कभी कर्ता बनता है और न ही भोगता।
इस श्लोक का एक गहरा आध्यात्मिक अर्थ यह भी है कि जीव जो स्वयं को कर्ता-भोगता मानता है, वह वास्तव में अविद्या से ग्रस्त होकर ऐसा अनुभव करता है। वास्तविक कर्तापन तो प्रकृति के गुणों और इन्द्रियों की गति का है। आत्मा तो निरपेक्ष है, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन या कर्म बंधन नहीं होता। यदि साधक इस सत्य को समझ ले कि शरीर-मन-बुद्धि केवल उपकरण हैं और आत्मा मात्र साक्षी है, तो वह मोह और अहंकार से मुक्त होकर शांति और स्वतंत्रता का अनुभव करने लगता है।
उपनिषदों में भी कहा गया है कि आत्मा "नेयम् नेत्रेण न पश्यति, येन चक्षूंषि पश्यन्ति" – वह आँखों से नहीं देखता, बल्कि आँखें उसी के कारण देख पाती हैं। वही कानों से नहीं सुनता, पर कान उसी के कारण श्रवण करते हैं। यही भाव इस श्लोक में प्रकट हुआ है कि आत्मा का कार्य केवल उपस्थिति है, जो सबको जीवंत बनाती है। साधक को यही विवेक करना चाहिए कि देह और इन्द्रियों का कार्य आत्मा से भिन्न है।
अतः इस श्लोक के माध्यम से हमें यह शिक्षा मिलती है कि आत्मा को कर्ता मानना भ्रांति है। आत्मा सदा अकर्मा, निष्क्रिय, शुद्ध और साक्षी है। उसके प्रकाश में ही यह जगत और हमारे समस्त अनुभव संभव होते हैं। जैसे आकाश सबको धारण करता है पर किसी से प्रभावित नहीं होता, वैसे ही आत्मा की सन्निधि मात्र से ही सब गतिविधियाँ चलती हैं, किन्तु वह स्वयं निष्कलंक और अपरिवर्तित बना रहता है। यही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है, और इसे पहचानना ही आत्मज्ञान की दिशा में सबसे बड़ा कदम है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!