"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 132वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः ।
वेद्यन्ते घटवद्येन नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥
अर्थ:-अहंकार से लेकर देह पर्यन्त और सुख आदि समस्त विषय जिस नित्यज्ञानस्वरूप के द्वारा घट के समान जाने जाते हैं।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का अत्यंत गहन और महत्त्वपूर्ण निर्देश है। इसमें शंकराचार्यजी आत्मा और अनात्मा के संबंध को स्पष्ट करते हुए यह बताते हैं कि अहंकार से लेकर देह तक, और उनसे जुड़े सुख-दुःख आदि समस्त विषय वस्तुतः जानने योग्य (वेद्य) हैं। उन्हें जानने वाला कोई दूसरा है, और वह है नित्य बोधस्वरूप आत्मा। जैसे घट आदि बाह्य पदार्थ हमारे ज्ञान में आते हैं, वैसे ही देह, इन्द्रियाँ, मन, अहंकार और उनसे उत्पन्न सुख-दुःख भी आत्मा के ज्ञान में आते हैं।
यहाँ "अहंकार" शब्द से आरम्भ करके "देह" तक की सभी परतों का उल्लेख हुआ है। अहंकार सूक्ष्मतम है, जो स्वयं को कर्ता और भोक्ता मानता है। मन, बुद्धि और चित्त भी उसी में अंतर्भूत हैं। देह स्थूलतम है, जिसे हम प्रत्यक्ष देखते हैं। इन दोनों के बीच इन्द्रियाँ और प्राण आदि आते हैं। शंकराचार्य कहते हैं कि ये सब वस्तुतः आत्मा नहीं हैं, क्योंकि ये सब जानने योग्य वस्तुएँ हैं। जानने योग्य वस्तु कभी जानने वाला नहीं हो सकती।
अब सुख-दुःख और अन्य विषयों की ओर दृष्टि डालें। मनुष्य अक्सर सुख को आत्मा समझ बैठता है और दुःख से आत्मा को दूषित मान लेता है। पर वास्तव में सुख-दुःख भी बाहर के विषय हैं, जो इन्द्रियों और मन के संयोग से अनुभव होते हैं। जैसे घट, पट या किसी अन्य बाहरी वस्तु का ज्ञान हमें आत्मा के प्रकाश से ही होता है, वैसे ही सुख-दुःख भी आत्मा के प्रकाश से ही प्रकट होते हैं। अतः यह निश्चय करना चाहिए कि आत्मा सुख-दुःख का भोक्ता नहीं है, वरन् उनका साक्षी मात्र है।
शंकराचार्यजी यहाँ आत्मा को "नित्यबोधस्वरूपिण" कह रहे हैं। इसका अर्थ है कि आत्मा केवल चैतन्य है, केवल ज्ञानस्वरूप है। उसका स्वभाव ही जानना है, और वह कभी भी नष्ट नहीं होता। जब तक देह है, तब तक वह देह से संबंधित समस्त अनुभवों को प्रकाशित करता है, और देह के नष्ट हो जाने पर भी उसकी सत्ता बनी रहती है। जैसे दीपक के प्रकाश में बाहर के पदार्थ दिखाई देते हैं, वैसे ही आत्मा के ज्ञान में मन, बुद्धि, अहंकार और शरीर के साथ-साथ सुख-दुःख और अन्य विषय भी प्रकाशित होते हैं।
उदाहरण में "घटवत्" शब्द का प्रयोग विशेष महत्त्वपूर्ण है। जैसे घट एक जड़ पदार्थ है, जो जानने योग्य है और कभी भी जानने वाले का स्वरूप नहीं हो सकता, वैसे ही देह, इन्द्रियाँ, मन और अहंकार भी केवल जानने योग्य हैं। उनका आत्मा से कोई तादात्म्य नहीं है। आत्मा घट या किसी बाह्य वस्तु की तरह कभी ज्ञेय नहीं हो सकती, क्योंकि वह स्वयं ज्ञाता है। ज्ञाता ही नित्य और शुद्ध है।
इस प्रकार इस श्लोक में साधक के लिए एक गहन विवेक प्रस्तुत किया गया है। साधक को यह समझना चाहिए कि जो कुछ भी जाना जाता है—चाहे वह शरीर हो, इन्द्रिय हो, मन हो, अहंकार हो या सुख-दुःख हो—वह आत्मा नहीं है। आत्मा तो वह है जो इन सबको प्रकाशित करता है। जब यह विवेक दृढ़ हो जाता है, तब मनुष्य अपने आपको देह, मन और अहंकार से अलग जानकर शुद्ध, नित्य, चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनुभव करता है। यही आत्मसाक्षात्कार की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!