"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 133वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः
सदैकरूपः प्रतिबोधमात्रो येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ १३३॥
अर्थ:-यही नित्य अखण्डानन्दानुभवरूप अन्तरात्मा पुराण पुरुष है, जो सदा एकरूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणा से वागादि इन्द्रियाँ और प्राण चलते हैं।
यह श्लोक आत्मस्वरूप की महिमा को प्रकट करता है। यहाँ स्पष्ट किया गया है कि जो अन्तःस्थित आत्मा है, वही वास्तव में पुराण पुरुष है, जो नित्य, अखण्ड और अनन्त सुखस्वरूप है। इस आत्मा की पहचान यह है कि यह निरन्तर अखण्डानन्द का अनुभव कराने वाला तत्व है, जो कभी बदलता नहीं, कभी नष्ट नहीं होता और सदैव एकरस रूप में स्थित रहता है। संसार में जो कुछ भी हम अनुभव करते हैं, वह परिवर्तनशील और क्षणभंगुर है, परन्तु आत्मा इससे परे सदा एक समान बनी रहती है। यही कारण है कि इसे "पुराण पुरुष" कहा गया है—पुरातन भी है और नवीन भी, क्योंकि यह समय और परिवर्तन की सीमा से परे है।
आत्मा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह केवल "प्रतिबोधमात्र" है, अर्थात् केवल चैतन्य, केवल साक्षी। यह किसी विशेष गुण या विशेषता से युक्त नहीं है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब उसी की प्रेरणा से चलते हैं, किन्तु वह स्वयं इन सबसे परे है। जैसे सूर्य की उपस्थिति मात्र से सभी जीव-जगत क्रियाशील हो जाते हैं, पर सूर्य स्वयं उनसे प्रभावित नहीं होता, वैसे ही आत्मा की उपस्थिति से ही वाणी, प्राण और अन्य सभी क्रियाएँ संभव हैं, पर आत्मा स्वयं अकर्ता और असंग रहता है।
मनुष्य अक्सर यह मान लेता है कि वह अपने कर्मों और विचारों का कर्ता है, किन्तु वेदांत बताता है कि यह सब केवल आत्मा की साक्षी उपस्थिति में घटित होता है। वास्तव में कर्ता और भोक्ता केवल देह-मन-बुद्धि का अहंकार रूपी आवरण है, आत्मा तो केवल शुद्ध साक्षी है। इसीलिए शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा "सदैकरूप" है—उसमें कोई द्वैत या भेद नहीं है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जन्म-मृत्यु ये सब शरीर और मन के स्तर पर हैं, आत्मा सदा एकरस, नित्य और निर्विकार है।
यहाँ आत्मा को "निरन्तर अखण्ड सुखानुभूति" कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि आत्मा का स्वरूप ही आनंद है, यह किसी वस्तु या परिस्थिति से प्राप्त होने वाला सुख नहीं है। बाह्य सुख वस्तुओं के मिलने पर आता है और नष्ट होने पर चला जाता है, पर आत्मानन्द तो सदा उपलब्ध है। अज्ञानवश मनुष्य उसे बाहर खोजता है, जबकि वह अपने ही अन्तःकरण में स्थित है। जब साधक आत्मचिन्तन और साधना के माध्यम से इस चैतन्य को पहचान लेता है, तब वह समझता है कि जिस आनंद को मैं बाहर ढूँढ रहा था, वह तो मैं स्वयं ही हूँ।
आत्मा के बिना वाणी बोल नहीं सकती, प्राण चल नहीं सकते और इन्द्रियाँ अपने कार्य नहीं कर सकतीं। उपनिषदों में कहा गया है—"न वाचा न मनसा न चक्षुषा शक्योऽनुभवितुम्" अर्थात् आत्मा वाणी, मन और चक्षु आदि से अनुभव करने योग्य नहीं है, बल्कि इन्हीं को समर्थ बनाता है। यह वही सत्ता है जिसके बिना सम्पूर्ण जगत् जड़वत् और निष्क्रिय हो जाता। जैसे विद्युत धारा उपकरणों को शक्ति देती है, पर स्वयं किसी उपकरण की विशेषता से प्रभावित नहीं होती, वैसे ही आत्मा सबको गति देती है पर स्वयं अचल और निर्विकार है।
अतः यह श्लोक साधक को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध कराता है। हम शरीर, इन्द्रिय और मन नहीं, बल्कि वही नित्य चैतन्य आत्मा हैं, जो अखण्ड आनंदमय और एकरस है। आत्मा को जानने के बाद मनुष्य समझता है कि वह किसी बाहरी साधन या उपलब्धि से पूर्ण नहीं होता, वह तो सदा से पूर्ण ही था। यही आत्मज्ञान का सार है और यही बन्धन-मोक्ष का रहस्य।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!