"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 134वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया-मव्याकृताकाश उरुप्रकाशः ।
आकाश उच्चै रविवत्प्रकाशते स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन् ॥ १३४॥
अर्थ:-इस सत्त्वात्मा अर्थात् बुद्धिरूप गुहा में स्थित अव्यक्ताकाश के भीतर एक परम प्रकाशमय आकाश सूर्य के समान अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को देदीप्यमान करता हुआ बड़ी तीव्रता से प्रकाशमान हो रहा है।
शंकराचार्यजी द्वारा रचित विवेकचूड़ामणि का यह श्लोक आत्मा के स्वरूप और उसकी आभा का अत्यंत गहन वर्णन करता है। इसमें कहा गया है कि इस सत्त्वात्मा, अर्थात् बुद्धिरूप गुहा के भीतर अव्यक्ताकाश में एक ऐसा परम तेजस्वी आकाश स्थित है जो सूर्य के समान अपनी स्वयं की ज्योति से सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है। यह कोई बाहरी प्रकाश नहीं है, न ही यह इन्द्रियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला सामान्य प्रकाश है, बल्कि यह आत्मा का स्वरूप है जो स्वयंप्रकाश है और जिसके कारण ही जगत का सम्पूर्ण ज्ञान और अनुभव संभव होता है।
बुद्धि को यहाँ गुहा या गुफा कहा गया है क्योंकि यह आत्मा के लिए साधनरूप माध्यम है। जैसे कोई दीपक अंधकारमय गुफा को प्रकाशित कर देता है, वैसे ही आत्मा का प्रकाश बुद्धि की गुहा में प्रकट होता है और संपूर्ण विश्व के ज्ञान का आधार बनता है। यह प्रकाश किसी अन्य से उधार लिया हुआ नहीं है, बल्कि आत्मा का स्वभाव ही प्रकाशमय है। शंकराचार्य इसे सूर्य के समान बताते हैं क्योंकि सूर्य अपने तेज से स्वयं भी प्रकाशित होता है और अन्य सभी वस्तुओं को भी प्रकाशित कर देता है। उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं का साक्षात्कार करता है और साथ ही बुद्धि, मन और इन्द्रियों को चेतना प्रदान करता है।
यहाँ अव्यक्ताकाश का उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण है। अव्यक्ताकाश मायारूप आकाश है, जिसमें सम्पूर्ण जगत का कारण रूप में स्थित है। इसी अव्यक्त में यह आत्मप्रकाश छिपा हुआ है, जो साधक की साधना के द्वारा प्रकाशित हो उठता है। साधारण दृष्टि से मनुष्य शरीर, मन और इन्द्रियों को ही आत्मा मान लेता है, किंतु विवेक से देखने पर ज्ञात होता है कि इन सबके पीछे कोई ऐसा साक्षी तत्व है जो सबको प्रकाशित कर रहा है और स्वयं कभी अप्रकाशित नहीं होता।
इस आत्मप्रकाश का अनुभव तभी संभव है जब साधक भीतर की ओर मुड़कर बुद्धि की गुहा में प्रवेश करता है। बाहर की इन्द्रियाँ विषयों में उलझी रहती हैं और बाहरी प्रकाश से संतुष्ट हो जाती हैं। किंतु जब ध्यान और विवेक के द्वारा साधक बुद्धि की शुद्धि करता है, तब उस गुहा में स्थित आत्मा का प्रकाश अनुभव में आता है। यही प्रकाश वास्तव में ज्ञान का आधार है और यही आत्मा का स्वरूप है।
इस श्लोक का संकेत यह भी है कि सम्पूर्ण जगत आत्मा के प्रकाश से ही प्रकाशित है। हम जो कुछ भी देखते, सुनते और अनुभव करते हैं, वह आत्मा की ही चेतना के कारण संभव है। आत्मा के बिना न तो जगत का अनुभव हो सकता है और न ही उसका अस्तित्व प्रकट हो सकता है। आत्मा का प्रकाश ही ज्ञान का मूल कारण है। जैसे सूर्य के बिना जगत अंधकारमय हो जाएगा, वैसे ही आत्मा के बिना संपूर्ण जगत ज्ञान से रहित और अचेतन हो जाएगा।
अतः शंकराचार्य यहाँ यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि आत्मा कोई साधारण वस्तु नहीं है, बल्कि वही परम प्रकाश है जो स्वयं प्रकाशित है और जिसके कारण ही यह समस्त जगत प्रकाशमान है। साधक को चाहिए कि वह अपने विवेक से इसे पहचानकर बाहरी प्रकाश और विषयों के पीछे न भागे, बल्कि भीतर स्थित इस आत्मप्रकाश का साक्षात्कार करे। यही साक्षात्कार जीवन का परम लक्ष्य है और यही मोक्ष का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!