"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 135वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
ज्ञाता मनोऽहङ्कृतिविक्रियाणां देहेन्द्रियप्राणकृतक्रियाणाम् ।
अयोऽग्निवत्ताननुवर्तमानो न चेष्टते नो विकरोति किञ्चन ॥ १३५ ॥
अर्थ:-वह मन और अहंकार रूप विकारों का तथा देह, इन्द्रिय और प्राणों की क्रियाओं का ज्ञाता है। तथा तपाये हुए लोह पिण्ड के समान उनका अनुवर्तन करता हुआ भी न कुछ चेष्टा करता है और न विकार को ही प्राप्त होता है।
यह श्लोक आत्मा और शरीर-मन-इन्द्रिय के बीच के भेद को गहराई से समझाने वाला है। यहाँ स्पष्ट किया गया है कि आत्मा मात्र साक्षी है। मन की वृत्तियाँ, अहंकार के उद्भव और लय, देह के कार्य, इन्द्रियों की गतिविधियाँ और प्राण की क्रियाएँ सब कुछ बदलती रहती हैं। परंतु आत्मा इन सबको जानने वाला है। जैसे सूर्य अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित करता है परंतु स्वयं किसी क्रिया में संलग्न नहीं होता, वैसे ही आत्मा सबका ज्ञाता होते हुए भी किसी भी क्रिया से अछूता रहता है।
आत्मा की इस स्थिति को समझाने के लिए श्लोक में एक बड़ा सुंदर उदाहरण दिया गया है—तप्त लोह पिण्ड और अग्नि का। जब लोहे को अग्नि में रखा जाता है, तो वह अग्नि के गुणों को धारण करता हुआ प्रतीत होता है। लोह पिण्ड लाल हो जाता है, प्रकाश देने लगता है और जलाने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। देखने वाला व्यक्ति समझता है कि यह लोह पिण्ड स्वयं अग्नि के समान हो गया है। परंतु वास्तव में अग्नि और लोह पिण्ड अलग-अलग ही हैं। लोह पिण्ड अग्नि के गुणों का केवल अनुवर्तन कर रहा है, उसकी नकल कर रहा है। उसी प्रकार आत्मा देह, इन्द्रिय, मन और प्राणों के साथ रहता हुआ भी उनके गुणों से अप्रभावित रहता है।
यहाँ यह बात बहुत सूक्ष्म रूप से कही गई है कि आत्मा स्वयं कोई चेष्टा नहीं करता। क्रियाएँ केवल मन, इन्द्रिय और प्राण करते हैं। परंतु जब जीवात्मा देह के साथ अपनी पहचान जोड़ लेता है तो उसे ऐसा प्रतीत होता है कि “मैं” कर रहा हूँ, “मैं” बोल रहा हूँ, “मैं” चल रहा हूँ। जबकि सत्य यह है कि आत्मा तो नित्य निष्क्रिय है—वह केवल साक्षी भाव से देख रहा है। अहंकार के कारण “कर्तृत्व” का भाव उत्पन्न होता है। यही मायाजन्य भ्रम है, जो जीव को बन्धन में डालता है।
शास्त्रों के अनुसार आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। उसमें किसी भी प्रकार का विकार प्रवेश नहीं कर सकता। मन जब चंचल होता है, तो हमें दुःख या सुख का अनुभव होता है। इन्द्रियाँ विषयों में दौड़ती हैं, तो हमें आकर्षण और विरक्ति का अनुभव होता है। प्राण जब तीव्रता से कार्य करते हैं, तो हमें परिश्रम या थकान का अनुभव होता है। परंतु आत्मा इन सबसे अलग है। वह केवल ज्ञाता है। जैसे आकाश में बादल आते-जाते हैं, तूफान उठते हैं, वर्षा होती है, लेकिन आकाश स्वयं इनसे अप्रभावित रहता है—ठीक वैसे ही आत्मा शरीर-मन के विकारों से अछूता है।
यदि साधक इस तथ्य को गहराई से समझ ले कि आत्मा किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है, तो उसके भीतर एक गहन शांति उत्पन्न होती है। उसे यह अनुभव होता है कि मैं न मन हूँ, न देह, न प्राण, न अहंकार—मैं तो इन सबका साक्षी मात्र हूँ। इस बोध से वह धीरे-धीरे अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता है और बन्धनों से मुक्त होने का मार्ग प्राप्त करता है।
इस श्लोक का मूल संदेश यही है कि आत्मा अनन्त और अचल है। वह किसी विकार या क्रिया में संलग्न नहीं होता। वह केवल जानता है, प्रकाशित करता है। जब जीव इस सत्य को हृदयंगम कर लेता है, तब उसके जीवन में ज्ञान और मुक्ति का द्वार खुल जाता है। यही विवेकचूड़ामणि का मर्म है—असली आत्मस्वरूप को पहचानकर देह-मन के विकारों से ऊपर उठना।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!