"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 136वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
न जायते नो म्रियते न वर्धते न क्षीयते नो विकरोति नित्यः ।
विलीयमानेऽपि वपुष्यमुष्मिन् न लीयते कुम्भ इवाम्बरं स्वयम् ॥ १३६ ॥
अर्थ:-वह न जन्मता है, न मरता है, न बढ़ता है, न घटता है और न विकार को प्राप्त होता है। वह नित्य है और इस शरीर के लीन होने पर भी घट के टूटने पर घटाकाश के समान लीन नहीं होता।
यह श्लोक आत्मा के स्वरूप की अमरता और नित्यत्व को अत्यंत सुंदर ढंग से स्पष्ट करता है। आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, न कभी बढ़ती है और न घटती है। इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन या विकार संभव ही नहीं है। इसका कारण यह है कि आत्मा स्वयं नित्य है, शाश्वत है और अखंड है। जन्म और मृत्यु केवल शरीर की घटनाएँ हैं। जब शरीर उत्पन्न होता है, तब हम उसे जन्म कहते हैं और जब शरीर नष्ट होता है, तब हम उसे मृत्यु कहते हैं। लेकिन आत्मा इन सब घटनाओं से परे है, वह इनसे प्रभावित नहीं होती। जिस प्रकार आकाश घट में रहने पर घट के टूटने से समाप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा भी शरीर के नष्ट होने पर लुप्त नहीं होती।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक उपनिषदों की शिक्षा का प्रत्यक्ष प्रतिध्वनि है। कठोपनिषद् और गीता में भी यही कहा गया है कि आत्मा न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। आत्मा अजन्मा है, अविनाशी है और अखंड है। यदि आत्मा जन्म लेती, तो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होती, और यदि मृत्यु को प्राप्त होती तो नित्य नहीं कहलाती। लेकिन शास्त्र बार-बार यह बताते हैं कि आत्मा "अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणः" है। इस सत्य को पहचान लेना ही विवेक है।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि निरंतर परिवर्तनशील हैं। शैशव से यौवन और वृद्धावस्था तक शरीर बदलता रहता है। मन में विचार आते-जाते रहते हैं। बुद्धि कभी स्थिर रहती है, कभी अस्थिर। किंतु आत्मा में कोई भी परिवर्तन नहीं होता। आत्मा साक्षी भाव से इन सबका अनुभव करती रहती है। यह साक्षीभाव ही आत्मा की असली पहचान है। जैसे घट के भीतर का आकाश घट के टूटने पर भी अपने स्वरूप में स्थिर रहता है और महाकाश में मिल जाता है, वैसे ही आत्मा शरीर के नष्ट होने पर भी कभी समाप्त नहीं होती, वह अपने स्वरूप में स्थित रहती है।
मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यह है कि वह आत्मा को शरीर मान लेता है। शरीर की वृद्धावस्था को अपनी वृद्धावस्था मानता है, शरीर की मृत्यु को अपनी मृत्यु समझता है। इसी अज्ञान के कारण वह भय, शोक और मोह में बंधा रहता है। परंतु जब शास्त्र की दृष्टि से आत्मा को देखा जाए, तो स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा नित्य है और मृत्यु केवल शरीर की है। इस दृष्टिकोण से देखने पर मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है और जीवन में एक अद्भुत शांति आ जाती है।
उपनिषदों में कहा गया है कि आत्मा "अप्रमेय" है, अर्थात जिसे इन्द्रियाँ या मन नहीं जान सकते। आत्मा न तो कर्मों से बढ़ती है और न ही पापों से घटती है। वह सदा एकरस और पूर्ण है। वह केवल साक्षी है और देह, मन, बुद्धि की गतिविधियों को प्रकाशित करती है। जब साधक इस सत्य को दृढ़ता से जान लेता है, तब उसके जीवन से मोह, आसक्ति और भय मिट जाते हैं। वह समझ जाता है कि वास्तविक स्वरूप नित्य है, शुद्ध है, अमर है और वही उसकी असली पहचान है।
अतः इस श्लोक का संदेश यही है कि साधक को अपने को शरीर नहीं, बल्कि नित्य आत्मा के रूप में पहचानना चाहिए। जब यह दृढ़ अनुभव हो जाता है कि मैं जन्मरहित, मृत्यु रहित और अजर-अमर आत्मा हूँ, तब ही आत्मज्ञान संभव होता है। यह अनुभव ही मोक्ष का द्वार है। आत्मा का यह सत्य स्वरूप पहचान लेने से मनुष्य संसार के बंधनों से मुक्त होकर परम शांति को प्राप्त करता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!