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बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 137वां श्लोक"




"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 137वां श्लोक"

"आत्म-निरूपण"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

प्रकृतिविकृतिभिन्नः शुद्धबोधस्वभावः सदसदिदमशेषं भासयन्निर्विशेषः ।

विलसति परमात्मा जाग्रदादिष्ववस्था-स्वहमहमिति साक्षात् साक्षिरूपेण बुद्धेः ॥ १३७॥

अर्थ:-प्रकृति और उसके विकारों से भिन्न, शुद्ध ज्ञानस्वरूप, वह निर्विशेष परमात्मा सत्-असत् सबको प्रकाशित करता हुआ जाग्रत् आदि अवस्थाओं में अहं भाव से स्फुरित होता हुआ बुद्धि के साक्षी रूप से साक्षात् विराजमान है।

इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने परमात्मा के स्वरूप को अत्यन्त स्पष्ट और गहन ढंग से प्रकट किया है। वे बताते हैं कि परमात्मा प्रकृति और उसके विकारों से भिन्न है। प्रकृति से उत्पन्न यह सम्पूर्ण जगत्, शरीर, मन, इन्द्रियाँ, अहंकार और बुद्धि—all ये सब परिवर्तनशील हैं, इनका उदय और लय होता रहता है। लेकिन परमात्मा इन सबसे अलग, शुद्ध बोधस्वरूप है। वह स्वयं किसी विकार या परिवर्तन के अधीन नहीं है। जैसे सूर्य का प्रकाश आकाश में फैला हुआ होकर सबको प्रकाशित करता है, परन्तु स्वयं किसी वस्तु से प्रभावित नहीं होता, वैसे ही परमात्मा अपनी शुद्ध चेतना से सत् और असत्—अर्थात् जो अस्तित्व में है और जो केवल भ्रमरूप है—उन सबको प्रकाशित करता है, पर स्वयं निर्विशेष और निष्कलंक बना रहता है।

परमात्मा की यह विशेषता है कि वह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति—इन तीनों अवस्थाओं में भी समान रूप से विद्यमान रहता है। जब हम जाग्रत अवस्था में रहते हैं तब ‘मैं देख रहा हूँ, मैं सुन रहा हूँ, मैं सोच रहा हूँ’ यह अहं भाव प्रकट होता है। स्वप्न अवस्था में भी यही ‘मैं’ विभिन्न अनुभव करता है और सुषुप्ति में भी ‘मैं सोया था’ का स्मरण रहता है। इन सबके पीछे जो निरन्तर अनुभव का आधार है, वही परमात्मा है। वह इन अवस्थाओं का साक्षी है, किन्तु इनसे प्रभावित नहीं होता। जैसे चलचित्र पर चित्र चलते हैं परन्तु परदा अचल रहता है, वैसे ही बुद्धि में अहंकार और वृत्तियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन उनके साक्षी रूप में आत्मा सदा अचल रहता है।

यहाँ शंकराचार्य यह भी स्पष्ट करते हैं कि आत्मा का स्वरूप ‘निर्विशेष’ है। इसका अर्थ है कि उसमें कोई भेद, विशेषता या गुणात्मक विभाजन नहीं है। वह न तो किसी जाति-विशेष का अंग है, न किसी वस्तु की तरह सीमित है। वह केवल शुद्ध चैतन्य है, जो स्वयं प्रकाशित है और सबको प्रकाशित करता है। परन्तु अज्ञानवश मनुष्य अपने आप को शरीर और मन से जोड़ लेता है और यही भ्रम bondage का कारण बनता है। वस्तुतः शरीर और मन केवल उपकरण हैं, जिनके माध्यम से आत्मा अपनी उपस्थिति का बोध कराता है।

परमात्मा का यह स्वरूप बुद्धि में ‘अहम् अहम्’ के रूप में स्फुरित होता है। जब हम कहते हैं ‘मैं हूँ’, तो यह अनुभूति आत्मा की उपस्थिति से ही सम्भव होती है। यह ‘अहम्भाव’ आत्मा का ही प्रतिबिम्ब है, परन्तु बुद्धि इसको शरीर और मन से जोड़कर सीमित कर देती है। शंकराचार्य कहते हैं कि साधक को इस गहन सत्य को पहचानना चाहिए कि यह ‘मैं’ जो निरन्तर अनुभव हो रहा है, वह शरीर या मन नहीं, बल्कि वही परमात्मा है जो सबका साक्षी है।

जब यह समझ दृढ़ हो जाती है कि परमात्मा प्रकृति और उसके विकारों से भिन्न है और वह सदा शुद्ध, निर्विशेष बोधस्वरूप है, तब साधक का मोह नष्ट होता है। वह जान जाता है कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, जन्म-मृत्यु—ये सब केवल बुद्धि और शरीर की अवस्थाएँ हैं, आत्मा इनमें नहीं फँसता। इस ज्ञान से मनुष्य मुक्त होता है और परम शान्ति को प्राप्त करता है।

इस प्रकार यह श्लोक साधक को स्मरण कराता है कि आत्मा ही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का एकमात्र साक्षी है, जो किसी भी प्रकार के परिवर्तन से रहित होकर सतत ‘मैं-मैं’ के रूप में प्रकट होता रहता है। उसे पहचानना ही आत्मसाक्षात्कार है, और यही मोक्ष का मार्ग है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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