"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 138वां श्लोक"
"आत्म-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमात्म-न्ययमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादात् ।
जनिमरणतरङ्गापारसंसारसिन्धुं प्रतर भव कृतार्थो ब्रह्मरूपेण संस्थः ॥ १३८ ॥
अर्थ:-तू इस आत्मा को संयतचित्त होकर बुद्धि के प्रसन्न होने पर 'यह मैं हूँ'- ऐसा अपने अन्तःकरणमें साक्षात् अनुभव कर। और [ इस प्रकार ] जन्म-मरणरूपी तरंगों वाले इस अपार संसार-सागर को पार कर तथा ब्रह्मरूप से स्थित होकर कृतार्थ हो जा।
यह श्लोक साधक को अत्यन्त स्पष्ट और सीधा मार्ग दिखाता है कि आत्मसाक्षात्कार किस प्रकार संभव है। शंकराचार्य यहाँ कहते हैं कि मन को संयमित करके, बुद्धि को प्रसन्न और निर्मल बनाकर, अपने ही आत्मा को "मैं यही हूँ" इस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव करो। यह केवल एक बौद्धिक कल्पना या विचार नहीं है, बल्कि अन्तःकरण में होने वाला गहन अनुभव है। जब साधक का चित्त नियमित और स्थिर हो जाता है, तब बुद्धि की शुद्धता के कारण आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्रकाशित होता है। यह आत्मा न तो शरीर है, न मन है, न इन्द्रियाँ हैं, बल्कि इन सबका साक्षी और आधार है।
संसार को शास्त्रकार जन्म और मृत्यु की निरन्तर लहरों से युक्त महासागर के समान बताते हैं। जैसे समुद्र की लहरें निरन्तर उठती और मिटती रहती हैं, वैसे ही संसार में जन्म और मृत्यु का चक्र चलता रहता है। जब तक आत्मा को शरीर और मन के साथ अभिन्न माना जाता है, तब तक साधक इस महासागर में डूबता रहता है। परन्तु जब यह ज्ञान होता है कि "मैं" यह शरीर या मन नहीं, बल्कि नित्य शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ, तब संसार का बन्धन स्वतः छूट जाता है।
बुद्धि का प्रसाद अर्थात् उसकी निर्मलता और स्थिरता यहाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मन और बुद्धि जब तक वासनाओं और विकारों से ग्रस्त रहते हैं, तब तक आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो सकता। जैसे धूल से ढके हुए दर्पण में चेहरा स्पष्ट दिखाई नहीं देता, वैसे ही मलिन बुद्धि आत्मस्वरूप का प्रकाश नहीं कर पाती। पर जब साधना से, संयम से और विवेक-वैराग्य से बुद्धि निर्मल हो जाती है, तब आत्मा का साक्षात्कार सम्भव हो जाता है।
"अहमस्मि" की यह अनुभूति अद्वैत का सार है। सामान्य स्थिति में "मैं" शरीर, मन, इन्द्रियाँ, भावनाएँ या विचार मान लिया जाता है। परन्तु गहन आत्मचिन्तन और साधना से जब यह अनुभव होता है कि इन सबका साक्षी, अविनाशी, अखण्ड चैतन्य ही "मैं" हूँ, तब साधक को परम शान्ति प्राप्त होती है। यह अनुभूति केवल ज्ञान का विषय नहीं है, बल्कि साक्षात् अनुभव है, जो जीव को ब्रह्मरूप में स्थित कर देता है।
श्लोक में कहा गया है कि ऐसा अनुभव करने वाला साधक जन्म-मरणरूपी तरंगों से भरे हुए संसार-सागर को पार कर जाता है। जैसे नाविक जब समुद्र पार कर लेता है तो उसे कोई भय नहीं रहता, वैसे ही आत्मसाक्षात्कार करने वाला साधक संसार की सारी बाधाओं से परे हो जाता है। उसे अब पुनः जन्म-मरण का बन्धन नहीं बाँधता। वह ब्रह्म में स्थित होकर कृतार्थ हो जाता है।
इस प्रकार यह श्लोक साधना और उसके फल दोनों का रहस्य खोलता है। संयमित चित्त, निर्मल बुद्धि और आत्मस्वरूप में दृढ़ अनुभूति— यही मोक्ष का मार्ग है। इस मार्ग से चलकर साधक केवल सिद्धान्तों का ज्ञाता ही नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्मरूप में स्थित महापुरुष बन जाता है। यही जीवन की परम उपलब्धि और सर्वोच्च कृतार्थता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!