"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 139वां श्लोक"
"अध्यास"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अत्रानात्मन्यहमिति मतिर्बन्ध एषोऽस्य पुंसः प्राप्तोऽज्ञानाज्ञ्जननमरणक्लेशसम्पातहेतुः येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्धया पुष्यत्युक्षत्यवति विषयैस्तन्तुभिः कोशकृद्वत् ॥ १३९ ॥
अर्थ:-पुरुष का अनात्म-वस्तुओं में 'अहम्' इस आत्म-बुद्धि का होना ही जन्म-मरण रूपी क्लेशों की प्राप्ति कराने वाला अज्ञान से प्राप्त हुआ बन्धन है; जिसके कारण यह जीव इस असत् शरीर को सत्य समझकर इसमें आत्मबुद्धि हो जाने से, तन्तुओं से रेशम के कीड़े के समान, इसका विषयों द्वारा पोषण, मार्जन और रक्षण करता रहता है।
यह श्लोक विवेकचूड़ामणि के अत्यंत गूढ़ रहस्यों में से एक है। यहाँ शंकराचार्यजी ने बंधन के वास्तविक कारण को स्पष्ट किया है। सामान्यतः हम मानते हैं कि जन्म, मरण, सुख, दुख, भाग्य या परिस्थिति ही हमारे बंधन के कारण हैं, परंतु आचार्य बताते हैं कि बंधन का मूल कारण केवल एक है—अनात्म वस्तुओं में ‘अहम्’ की भ्रांति। जब जीव अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा को भूलकर देह, इन्द्रियों, मन और बुद्धि में आत्मबुद्धि करता है, तब अज्ञानवश वह स्वयं को सीमित, नश्वर और बदलने वाला समझ लेता है। यही भ्रांत धारणा बंधन का बीज है, जो जन्म और मृत्यु की अनवरत धारा का कारण बनती है।
यह आत्माभिमान अज्ञान से उत्पन्न होता है। अज्ञान ही वह आवरण है, जो आत्मा की शुद्ध, नित्य और मुक्त सत्ता को ढँक देता है और जीव को असत्य को सत्य के रूप में देखने के लिए विवश करता है। जैसे अंधकार में रस्सी को सर्प समझ लिया जाता है, वैसे ही अज्ञान के अंधकार में जीव अनात्म—शरीर, मन और बुद्धि—को ही आत्मा मान बैठता है। इस भ्रांति का परिणाम यह होता है कि वह ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भाव में डूब जाता है। जब शरीर में ‘मैं’ की भावना आ जाती है, तो उसके सुख-दुख, रोग-शोक और नाश में भी ‘मैं’ को अनुभव करता है। यही स्थिति उसे अनवरत क्लेशों और पुनर्जन्म के चक्र में डाल देती है।
शंकराचार्यजी कहते हैं कि यह जीव इस असत् शरीर को ही सत्य मान लेता है और इसकी रक्षा, पोषण और मरम्मत में निरंतर लगा रहता है। वह मान लेता है कि यही शरीर उसका वास्तविक स्वरूप है, इसलिए वह इसे स्वस्थ, सुंदर और दीर्घायु बनाए रखने के लिए विषय-सुखों और भोगों का आश्रय लेता है। लेकिन यह सब उसी प्रकार है जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही तंतु से कोकून बना कर उसमें फँस जाता है। जीव अपने विषय-आसक्तियों, इच्छाओं और कर्मों से अपने चारों ओर बंधन का जाल बुनता है और अंततः उसी में जकड़ जाता है।
यहाँ एक गहरा बोध निहित है। जब तक ‘मैं’ की पहचान शरीर और मन से जुड़ी रहेगी, तब तक जन्म और मृत्यु से मुक्ति असंभव है। क्योंकि शरीर परिवर्तनशील है, अतः उसका सुख भी क्षणभंगुर है और दुख भी अपरिहार्य है। आत्मा कभी भी रोगी नहीं होती, न ही मरती है, परंतु जब जीव शरीर को आत्मा मान लेता है तो उसके सारे रोग और मृत्यु को अपना समझकर भय और दुख का अनुभव करता है। यही श्लोक का मर्म है—अज्ञानजनित ‘अहम्’ की गलत पहचान ही बंधन है।
इस श्लोक से साधक के लिए मार्ग यह स्पष्ट होता है कि मुक्ति का साधन केवल आत्म-विवेक है। यदि मनुष्य यह भली-भांति जान ले कि “मैं न यह शरीर हूँ, न मन हूँ, न इन्द्रियाँ हूँ, मैं केवल शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ”, तो उसकी यह गलत धारणा मिट जाएगी। जब यह भेद स्पष्ट हो जाएगा, तब विषयों के द्वारा आत्मा की रक्षा या पोषण का भ्रम समाप्त हो जाएगा। फिर न तो विषयों के प्रति मोह बचेगा और न ही शरीर के प्रति अत्यधिक आसक्ति। परिणामतः वह रेशम के कीड़े की तरह स्वयं निर्मित जाल में फँसे बिना, मुक्त आकाश में उड़ने लगेगा।
अतः शंकराचार्यजी का यह उपदेश हमें स्मरण कराता है कि बंधन बाहर से नहीं आता, वह भीतर की भ्रांति से उत्पन्न होता है। यदि भ्रांति मिट जाए, तो जन्म-मरण का बंधन भी तुरंत मिट जाएगा और आत्मा की स्वाभाविक मुक्ति प्रकट हो जाएगी। यही सच्ची साधना और वेदान्त का सार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!