"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 140वां श्लोक"
"अध्यास"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अतस्मिस्तद्बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा विवेकाभावाद्वै स्फुरति भुजगे रज्जुधिषणा।
ततोऽनर्थव्रातो निपतति समादातुरधिक-स्ततो योऽसद्ग्राहः स हि भवति बन्धः शृणु सखे ॥ १४० ॥
अर्थ:-मूढ़ पुरुष को तमोगुण के कारण ही अन्य में अन्य बुद्धि होती है; विवेक न होने से ही रज्जु में सर्प-बुद्धि होती है; ऐसी बुद्धि वाले को ही नाना प्रकार के अनर्थों का समूह आ घेरता है; अतः हे मित्र ! सुन, यह जो असद्ग्राह (असत्को सत्य मानना) है वही बन्धन है।
विवेकचूड़ामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जीव के बन्धन का मूल कारण स्पष्ट करते हैं। श्लोक कहता है कि जब मनुष्य अज्ञान से आच्छादित होता है, तब उसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है और वह वस्तु का स्वरूप ठीक से नहीं पहचान पाता। तमोगुण के प्रभाव से विवेक का प्रकाश लुप्त हो जाता है। विवेक का अर्थ है – वास्तविक और अवास्तविक, सत्य और असत्य, नित्य और अनित्य के बीच सही भेद करने की क्षमता। जब यह विवेक नहीं रहता, तब जीव को असत् वस्तु भी सत् प्रतीत होती है। जैसे अंधकार में रज्जु को सर्प मान लिया जाता है, उसी प्रकार अज्ञानवश जीव शरीर, इन्द्रिय, मन और जगत को आत्मा समझ बैठता है।
यहाँ दिया गया उदाहरण अत्यन्त गहन है। रज्जु-सर्प भ्रांति उपनिषदों और अद्वैत वेदान्त की सबसे महत्त्वपूर्ण उपमाओं में से एक है। जब कोई व्यक्ति अंधेरे में ज़मीन पर पड़ी हुई रस्सी को देखता है, तो उसे सर्प का भ्रम हो सकता है। वास्तव में रस्सी ही है, परन्तु अंधकार और अज्ञान के कारण वह सर्प दिखाई देती है। इसी भ्रांति के कारण भय उत्पन्न होता है और मनुष्य काँपने लगता है। उसी प्रकार, इस संसार में ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, परन्तु अज्ञान के अंधकार में वही ब्रह्म जगत, शरीर, मन, सुख-दुःख आदि के रूप में दिखाई देता है। इस भ्रांति के कारण जीव मोह, दुःख, बन्धन और पुनर्जन्म में पड़ जाता है।
शंकराचार्य कहते हैं कि जब यह भ्रांति उत्पन्न होती है, तब जीव के जीवन में अनेक अनर्थ प्रकट हो जाते हैं। जैसे रज्जु को सर्प मानकर मनुष्य भयभीत होकर भागता है, वैसे ही आत्मा को शरीर और जगत मानकर जीव दुःख, भय, लोभ, क्रोध, आसक्ति और मोह में फँस जाता है। यह अनर्थों का समूह ही संसार कहलाता है। यहाँ "अनर्थव्रात" का अर्थ है – दुःखों और संकटों का अंतहीन जाल। कारण केवल एक है – असत् को सत् मान लेना, असत्य को सत्य समझना।
आचार्य स्पष्ट कहते हैं कि यही "असद्ग्राह" बन्धन है। असद्ग्राह का अर्थ है असत्य को पकड़ लेना और उसी में दृढ़ विश्वास कर लेना। जैसे रस्सी में सर्प-बुद्धि दृढ़ होने पर मनुष्य कितना भी समझाया जाए तब तक नहीं मानता जब तक कि स्पष्ट प्रकाश न हो जाए। उसी प्रकार, जब तक आत्मज्ञान का प्रकाश नहीं होता, तब तक मनुष्य अपने को देह-मन ही मानता है। यह भ्रांति ही जन्म-मरण के चक्र का कारण है।
यह श्लोक हमें यह शिक्षा देता है कि बन्धन किसी बाहरी शक्ति से नहीं है, यह हमारे भीतर की गलत दृष्टि से उत्पन्न होता है। आत्मा स्वभावतः मुक्त है, उसमें कभी बन्धन नहीं आ सकता। परन्तु जब अज्ञानवश जीव अपने को देह-मन मान लेता है, तब वह बन्धन का अनुभव करता है। जैसे स्वप्न में भयावह दृश्य दिखते हैं और जागने पर सब मिट जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान होने पर बन्धन का समस्त अनुभव समाप्त हो जाता है।
अतः शंकराचार्य कहते हैं – हे मित्र! समझो कि यह असद्ग्राह ही बन्धन है। यदि तुम सत्य और असत्य का विवेक करोगे, आत्मा और अनात्मा का भेद जानोगे, तो यह भ्रांति मिट जाएगी और तुम अपने स्वरूप को पहचानकर मुक्त हो जाओगे। यही विवेकचूड़ामणि का सन्देश है कि बन्धन का कारण केवल अज्ञान है और मुक्ति का उपाय केवल ज्ञान है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!