"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 141वां श्लोक"
"अध्यास"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अखण्डनित्याद्वयबोधशक्त्या स्फुरन्तमात्मानमनन्तवैभवम्
समावृणोत्यावृतिशक्तिरेषा तमोमयी राहुरिवार्कविम्बम् ॥ १४१ ॥
अर्थ:-अखण्ड, नित्य और अद्वय बोध-शक्ति से स्फुरित होते हुए अखण्डैश्वर्य सम्पन्न आत्मतत्त्व को यह तमोमयी आवरणशक्ति इस प्रकार ढंक लेती है जैसे सूर्यमण्डल को राहु ।
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक आत्मज्ञान और अज्ञान के गूढ़ रहस्य को स्पष्ट करता है। शंकराचार्य यहाँ यह बताते हैं कि आत्मा का स्वरूप तो स्वयं अखण्ड, नित्य और अद्वय है। वह किसी सीमा या विभाजन से रहित है, समय और स्थान के बंधनों से परे है, और द्वैत के सभी भेदों से अतिक्रांत है। आत्मा की बोधशक्ति स्वयं प्रकाशमान है, जिसे किसी बाहरी प्रमाण या साधन की आवश्यकता नहीं है। वह अनन्त वैभव से सम्पन्न है, यानी उसमें सभी दिव्य गुण, आनन्द और शांति अंतर्निहित हैं। परंतु जीवात्मा इन सबको प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर पाता, क्योंकि उस पर अज्ञान की एक गहरी परत छाई रहती है। यही अज्ञान शंकराचार्य द्वारा ‘आवरणशक्ति’ के रूप में वर्णित है।
आवरणशक्ति तमोगुण से उत्पन्न होती है, और इसका स्वभाव ढँक देना है। जैसे कोई वस्तु सामने होते हुए भी अंधकार में दिखाई नहीं देती, वैसे ही आत्मा हमारे भीतर होते हुए भी अज्ञान के कारण प्रत्यक्ष अनुभव में नहीं आता। शंकराचार्य इस स्थिति की तुलना सूर्यग्रहण से करते हैं। सूर्य तो सदैव आकाश में प्रकाशमान रहता है, उसकी ज्योति सर्वत्र व्याप्त होती है, परंतु जब राहु सूर्य के सम्मुख आकर उसे ढँक लेता है तो प्राणी उसकी ज्योति का अनुभव नहीं कर पाते। वास्तव में सूर्य न तो बुझता है, न उसकी ज्योति नष्ट होती है, वह अपने स्वरूप में सदैव अडिग और शुद्ध रहता है। परंतु देखने वाले को केवल अंधकार ही प्रतीत होता है। यही स्थिति आत्मा और आवरणशक्ति के बीच होती है। आत्मा सदैव स्फुरमान है, उसका अस्तित्व कभी नष्ट नहीं होता, परंतु अज्ञान का आवरण ऐसा प्रतीत कराता है कि आत्मा अप्रकाशित है।
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि अज्ञान केवल आत्मा को ढँकने का आभास देता है, वास्तव में आत्मा कभी ढँकता नहीं। सूर्य पर राहु का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, केवल देखने वाले के लिए सूर्य आच्छादित प्रतीत होता है। इसी प्रकार आत्मा पर आवरणशक्ति का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं होता, वह तो नित्य स्वच्छ और निर्विकार है। परंतु जीव, जो अज्ञान से आच्छादित है, अपने वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं कर पाता और देह, मन और इन्द्रियों को ही आत्मा मान बैठता है। यही भ्रांति संसार-बन्धन का कारण है।
आवरणशक्ति की विशेषता यह है कि वह न केवल आत्मा को ढँक देती है, बल्कि उसे अन्य वस्तुओं के साथ मिथ्या पहचान भी कराती है। यही कारण है कि जीव ‘मैं शरीर हूँ’, ‘मैं मन हूँ’ जैसी गलत धारणाओं में फँस जाता है। इस अज्ञान के कारण उसे जन्म और मृत्यु, सुख और दुख, लाभ और हानि के चक्र में भटकना पड़ता है। शंकराचार्य बार-बार यह समझाते हैं कि जब तक यह आवरणशक्ति विद्यमान है, तब तक आत्मसाक्षात्कार असंभव है।
इस आवरणशक्ति को दूर करने का एकमात्र उपाय ज्ञान है। जैसे अंधकार केवल प्रकाश से ही नष्ट होता है, वैसे ही अज्ञान केवल आत्मज्ञान से ही मिट सकता है। जब शास्त्रों, गुरु की कृपा और आत्मचिंतन के माध्यम से यह बोध होता है कि मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, बल्कि अखण्ड, नित्य, अद्वय आत्मा हूँ, तब आवरणशक्ति स्वतः ही विलीन हो जाती है। तब जीव जान लेता है कि वह स्वयं परमात्मा स्वरूप है, और तब उसके भीतर का अनन्त वैभव प्रकट हो जाता है।
इस प्रकार यह श्लोक जीव को यह स्मरण कराता है कि आत्मा सदैव प्रकट है, परंतु अज्ञानरूपी राहु उसे ढँक कर हमारे अनुभव से ओझल कर देता है। साधना और विवेक के माध्यम से जब यह आवरण हटता है, तब आत्मा का दिव्य प्रकाश संपूर्णता के साथ प्रत्यक्ष होता है। यही आत्मज्ञान मोक्ष की कुंजी है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!