"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 142वां श्लोक"
"अध्यास"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
तिरोभूते स्वात्मन्यमलतरतेजोवति पुमा-ननात्मानं मोहादहमिति शरीरं कलयति ।
ततः कामक्रोधप्रभृतिभिरमुं बन्धनगुणैः परं विक्षेपाख्या रजस उरुशक्तिर्व्यथयति ॥ १४२ ॥
अर्थ:-अति निर्मल तेजोमय आत्मतत्त्व के तिरोभूत (अदृश्य) होने पर पुरुष अनात्मदेह को ही मोहसे 'मैं हूँ' ऐसा मानने लगता है। तब रजोगुण की विक्षेप नामवाली अति प्रबल शक्ति काम-क्रोधादि अपने बन्धन कारी गुणों से इसको व्यथित करने लगती है।
शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक अद्वैत वेदान्त के अत्यंत गूढ़ रहस्य को उद्घाटित करता है। इसमें यह बताया गया है कि जब आत्मा, जो कि परम निर्मल, तेजोमय और अद्वय स्वरूप है, अविद्या के कारण तिरोभूत अर्थात् आच्छादित हो जाता है, तब मनुष्य अपनी वास्तविक सत्ता को पहचान नहीं पाता। आत्मा की अनुभूति का प्रकाश ढक जाने पर जीव अपने को देह के रूप में मान बैठता है। यह अज्ञान का मूल परिणाम है कि शुद्ध चैतन्य आत्मा, जो साक्षी और सर्वव्यापी है, देह, मन और इन्द्रियों में सीमित होकर 'अहम् शरीरः अस्मि' अर्थात् 'मैं यह शरीर हूँ' का भ्रांत विचार करता है। यही भ्रांति संसार-बन्धन का आरम्भ है।
जब जीव आत्मा के बजाय शरीर को 'मैं' मान लेता है, तो उसकी दृष्टि बाह्य जगत् की ओर आकर्षित हो जाती है। यह आकर्षण स्थायी और शाश्वत नहीं होता, बल्कि रजोगुण के प्रभाव से उत्पन्न विक्षेप के कारण निरंतर चंचल रहता है। शंकराचार्य यहाँ स्पष्ट करते हैं कि रजोगुण की शक्ति विक्षेप कहलाती है। यह शक्ति जीव को स्थिरता नहीं देती, बल्कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य जैसे बन्धनकारी दोषों के माध्यम से उसे व्यथित करती है। इस प्रकार जीव की स्थिति दुखमय और अशान्त हो जाती है।
आत्मा स्वभावतः पूर्ण, आनन्दरूप और शुद्ध चैतन्य है। उसमें न कोई विक्षेप है और न ही कोई मलिनता। परन्तु अज्ञानवश जब उसका तेज आच्छादित हो जाता है, तब जीव बाह्य जगत् को वास्तविक मानकर उसमें सुख ढूँढता है। शरीर को 'मैं' और मन से जुड़े विकारों को 'मेरा' मानने का परिणाम यही होता है कि जीव सांसारिक इच्छाओं और वासनाओं में उलझ जाता है। रजोगुण का प्रभाव यह है कि यह जीव को कर्मों के अंतहीन जाल में बाँध देता है। काम से उत्पन्न तृष्णा और क्रोध से उत्पन्न द्वेष उसे निरन्तर असन्तोष और संघर्ष की ओर ले जाते हैं।
विक्षेप शक्ति का यह प्रभाव इतना प्रबल है कि यह जीव को क्षण-क्षण विभिन्न विचारों, इच्छाओं और भावनाओं में डुबो देती है। परिणामतः मनुष्य कभी सुख की आकांक्षा करता है, कभी दुःख से भयभीत होता है, कभी सफलता में गर्व करता है, तो कभी असफलता में निराश हो जाता है। इस तरह उसका मन बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर होकर चंचल बना रहता है। यही रजोगुण का बन्धनकारी स्वरूप है।
यदि आत्मज्ञान का प्रकाश प्रकट हो, तो यह समस्त मोह और विक्षेप तिरोहित हो जाते हैं। परन्तु जब तक अज्ञान का आवरण बना रहता है और रजोगुण की विक्षेप शक्ति कार्यरत रहती है, तब तक जीव की स्थिति दासवत रहती है। वह अपने भीतर विद्यमान शुद्ध चैतन्य का अनुभव नहीं कर पाता और बाह्य जगत् के सुख-दुःख के चक्र में फँसा रहता है। शंकराचार्य का उद्देश्य यहाँ यह बताना है कि बन्धन का मूल कारण आत्मविस्मृति है और उसका उपाय केवल विवेक तथा आत्मसाक्षात्कार है।
अतः इस श्लोक का सार यही है कि आत्मा का प्रकाश जब अज्ञानवश ढक जाता है, तब जीव देह को आत्मा मानकर बन्धन में पड़ता है और रजोगुण की विक्षेप शक्ति उसे काम-क्रोधादि दोषों से पीड़ित करती है। समाधान केवल यही है कि साधक निरन्तर आत्मचिन्तन, शास्त्रश्रवण और ध्यान के माध्यम से इस भ्रांति को दूर करे और अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का अनुभव करे। यही मुक्ति का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!