"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 152, 153वां श्लोक"
"बन्ध-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
तच्छैवालापनये सम्यक् सलिलं प्रतीयते शुद्धम्। तृष्णासन्तापहरं सद्यः सौख्यप्रदं परं पुंसः ॥ १५२॥
पञ्चानामपि कोशानामपवादे विभात्ययं शुद्धः । नित्यानन्दैकरसः प्रत्यग्रूपः परः स्वयंज्योतिः ॥ १५३ ॥
अर्थ:-जिस प्रकार उस शिवाल के पूर्णतया दूर हो जाने पर मनुष्यों के तृषा रूपी ताप को दूर करने वाला तथा उन्हें तत्काल ही परम सुख-प्रदान करने वाला जल स्पष्ट प्रतीत होने लगता है उसी प्रकार पाँचों कोशों का अपवाद करन पर यह शुद्ध, नित्यानन्दैकरसस्वरूप, अन्तर्यामी, स्वयं प्रकाश परमात्मा भासने लगता है।
जिस प्रकार किसी जलाशय का स्वच्छ जल अपने ऊपर जमी हुई शैवाल की परतों से ढँक जाने के कारण दिखाई नहीं देता, वैसे ही आत्मा भी अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—इन पाँच कोशों से आच्छादित होने के कारण अपने स्वभाव में स्पष्ट रूप से नहीं भासता। जब उन शैवालों को हटा दिया जाता है, तब वही जल न केवल अपनी निर्मलता में दृष्टिगोचर होता है, बल्कि प्यास से व्याकुल मनुष्यों के लिए तात्कालिक शांति, तृप्ति और आनन्द का स्रोत बन जाता है। इसी प्रकार जब साधक विवेक और साधना के माध्यम से पंचकोशों का अपवाद करता है, अर्थात् उन्हें 'अनात्म' जानकर उनके पार चला जाता है, तब आत्मा का साक्षात्कार होता है, जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, आनन्दरूप और स्वयंप्रकाश है।
यहाँ “शैवाल” उपमा अत्यंत गूढ़ और सुंदर है। शैवाल स्वयं जल से ही उत्पन्न होते हैं, परन्तु उसी को ढँक देते हैं, जिससे वह दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार पंचकोश भी आत्मा की ही शक्तियों से उत्पन्न हैं — अज्ञान, कर्म और उपाधियों के प्रभाव से — पर वे आत्मा को आच्छादित कर देते हैं और जीव को यह भ्रांति होती है कि वह शरीर, मन या बुद्धि है। जैसे शैवाल के हटने पर जल का अस्तित्व नहीं बदलता, वह सदैव वहीं रहता है, केवल दृष्टि में अवरोध होता है, वैसे ही आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता; वह सदा शुद्ध और पूर्ण है, केवल अविद्या की परतें दृष्टि को ढँक देती हैं।
जब साधक ध्यान, विवेक और वैराग्य के द्वारा इन कोशों का विवेचन करता है — "यह शरीर मैं नहीं हूँ", "यह प्राण, मन, बुद्धि और आनन्दमय अवस्था भी मैं नहीं हूँ" — तब वह क्रमशः इन आवरणों से मुक्त होता है। जैसे-जैसे प्रत्येक परत का निषेध होता जाता है, वैसे-वैसे आत्मा का प्रकाश अधिक स्पष्ट होता जाता है। अंततः जब सब कोशों का अपवाद हो जाता है, तब वह परमात्मस्वरूप प्रकट होता है, जो "नित्यानन्दैकरसः" है — जिसका स्वरूप नित्य, अखण्ड और आनन्दरूप है।
इस अवस्था में आत्मा किसी बाहरी प्रकाश से प्रकाशित नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं "स्वयंज्योतिः" है — जैसे सूर्य स्वयं को और सबको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आत्मा सब अनुभवों का साक्षी बनकर स्वयंप्रकाश है। वह किसी साधन या प्रमाण का विषय नहीं, क्योंकि सब प्रमाण उसी के प्रकाश से कार्य करते हैं। आत्मा की अनुभूति कोई नया ज्ञान नहीं, बल्कि अज्ञान के नाश के बाद अपने ही स्वरूप का उद्घाटन है।
इस प्रकार शंकराचार्य यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा का साक्षात्कार किसी दूर की वस्तु का दर्शन नहीं, बल्कि आच्छादन के हट जाने मात्र से उसका स्वतः प्रकाश है। आत्मा न तो शरीर के साथ उत्पन्न होती है, न उसके नष्ट होने पर लुप्त होती है। वह तो सदा एकरस आनन्दस्वरूप, चैतन्यमय, शुद्ध और स्वतंत्र है। जब साधक पंचकोशों की असत्यता का अनुभव करता है, तब उसके भीतर का आत्म-प्रकाश प्रकट हो जाता है, जो परम तृष्णा-शमन करने वाला, सर्वोच्च शांति देने वाला और सभी दुखों का अंत करने वाला है। यही परम पुरुष का अनुभव है, जो वेदान्त का अंतिम लक्ष्य है — आत्मा और ब्रह्म का अभेदज्ञान, जो मुक्त अवस्था का वास्तविक स्वरूप है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!