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सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 154वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 154वां श्लोक"

"बन्ध-निरूपण"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा । तेनैवानन्दी भवति स्वं विज्ञाय सच्चिदानन्दम् ॥ १५४॥

अर्थ:-बन्धन की निवृत्ति के लिये विद्वान्‌ को आत्मा और अनात्मा का विवेक करना चाहिये। उसी से अपने-आप को सच्चिदानन्दरूप जान कर वह आनन्दित हो जाता है।

शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक आत्मा और अनात्मा के भेद की महत्ता को अत्यंत सरल किंतु गूढ़ रूप में प्रकट करता है — “आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा। तेनैवानन्दी भवति स्वं विज्ञाय सच्चिदानन्दम्॥” अर्थात् विद्वान पुरुष को बन्धन से मुक्ति के लिए आत्मा और अनात्मा का विवेक अवश्य करना चाहिए, क्योंकि उसी विवेक के द्वारा वह अपने वास्तविक स्वरूप को सच्चिदानन्द — सत्, चित्, आनन्द — के रूप में जानकर परम आनन्द का अनुभव करता है। यह श्लोक संपूर्ण वेदांत दर्शन का सार है, क्योंकि समस्त bondage (बंधन) अज्ञान से उत्पन्न होता है, और उसका नाश केवल ज्ञान से ही संभव है।

मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार है। परंतु जब तक वह ‘मैं कौन हूँ?’ इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं जानता, तब तक वह देह, मन, इन्द्रियों और बुद्धि को ही ‘मैं’ मानकर संसार में बंधा रहता है। यही अनात्मा का भ्रम है। आत्मा वह है जो सदा एकरस, अचल, अविनाशी और साक्षीस्वरूप है — जो शरीर, मन, बुद्धि आदि के परिवर्तन का साक्षी बना रहता है। दूसरी ओर, अनात्मा वह सब है जो परिवर्तनशील है — शरीर, इन्द्रियाँ, मन, अहंकार, और सम्पूर्ण जगत्। जब ज्ञानी व्यक्ति विवेक के द्वारा इन दोनों के मध्य स्पष्ट भेद कर लेता है, तब उसे अनुभव होता है कि जो ‘मैं’ हूँ वह इन सबका साक्षी है, उनसे भिन्न है, और कभी बंधता नहीं।

शंकराचार्य का कहना है कि इस विवेक के बिना मुक्ति संभव नहीं है। क्योंकि अज्ञान ही बंधन का मूल कारण है — जब जीव यह मान लेता है कि “मैं यह शरीर हूँ,” “मैं दुःखी हूँ,” “मैं करता हूँ,” तब वह संसार के कर्मफल और जन्म-मरण के चक्र में फँस जाता है। परन्तु जब वह गहराई से विचार करता है और शास्त्रों व गुरु की कृपा से यह समझ लेता है कि “मैं शरीर नहीं, मैं शुद्ध चेतना हूँ,” तब वह उसी क्षण मुक्त हो जाता है। इस ज्ञान का परिणाम बाह्य परिवर्तन नहीं, बल्कि आंतरिक जागृति होती है।

जब यह ज्ञान दृढ़ होता है, तब ज्ञानी यह जान लेता है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द है — सत् अर्थात् जो सदा है, चित् अर्थात् जो ज्ञानस्वरूप है, और आनन्द अर्थात् जो नित्य आनन्द का स्रोत है। यह आनन्द बाहरी सुखों जैसा क्षणिक नहीं, बल्कि आत्मानुभव से प्रकट होने वाला शाश्वत सुख है। यही कारण है कि श्लोक में कहा गया है — “तेनैवानन्दी भवति” — अर्थात् उसी विवेक द्वारा मनुष्य परम आनन्दमय हो जाता है।

इस अवस्था में ज्ञानी न तो संसार के सुख में आसक्त होता है, न दुःख में विचलित। वह सबमें एक ही आत्मा को देखता है — न कोई उसका शत्रु है, न मित्र। उसका जीवन स्वाभाविक रूप से करुणा, शान्ति और प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है। यही जीवन्मुक्ति की अवस्था है, जहाँ व्यक्ति शरीर के रहते हुए भी संसार से परे, ब्रह्मानन्द में स्थित रहता है।

अतः यह श्लोक हमें सिखाता है कि मुक्ति किसी बाहरी साधन या कर्म से नहीं, बल्कि आत्मा और अनात्मा के सूक्ष्म विवेक से संभव है। जब यह विवेक परिपक्व होता है, तब आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द रूप में प्रकाशित होता है, और वही साक्षात् मोक्ष है — वह अवस्था जहाँ जीव जानता है कि वह कभी बंधा था ही नहीं।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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