"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 155वां श्लोक"
"बन्ध-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मुञ्जादिषीकामिव दृश्यवर्गात् प्रत्यंचमात्मानमसङ्गमक्रियम् ।
विविच्य तत्र प्रविलाप्य सर्वं तदात्मना तिष्ठति यः स मुक्तः ॥ १५५ ॥
अर्थ:-जो पुरुष अपने असंग और अक्रिय प्रत्यगात्मा को मूँज में से सींक के समान दृश्य वर्ग से पृथक् करके तथा सब का उसी में लय करके आत्मभाव में ही स्थित रहता है, वही मुक्त है।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्य जी ने मुक्ति का अत्यंत सूक्ष्म और गूढ़ स्वरूप समझाया है। वे कहते हैं कि जो पुरुष मुञ्जा घास में से सींक को अलग करने की भाँति अपने आत्मा को शरीर, इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि दृश्य वस्तुओं से अलग कर देता है, वही वास्तव में मुक्त है। यहाँ “मुञ्जादिषीकामिव” का अर्थ है – जैसे कोई व्यक्ति मुञ्जा नामक घास की परतों को सावधानी से हटाकर उसके भीतर की कोमल सींक को निकालता है, उसी प्रकार साधक को भी शरीर और मन की परतों के भीतर स्थित अपने वास्तविक स्वरूप – आत्मा – को पहचानना होता है। यह आत्मा “असङ्ग” और “अक्रिय” है, अर्थात् वह किसी भी वस्तु से जुड़ी हुई नहीं है और स्वयं कोई कर्म नहीं करती। यह केवल साक्षी मात्र है, जो सबका दर्शन करता है पर स्वयं किसी में लिप्त नहीं होता।
शंकराचार्य जी यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि संसार के सारे दृश्य पदार्थ, चाहे वे स्थूल हों या सूक्ष्म, सब परिवर्तनशील हैं, इसलिए वे आत्मा नहीं हो सकते। शरीर जन्म लेता है, बढ़ता है, रोगी होता है, वृद्ध होता है और अंत में नष्ट हो जाता है। मन भी क्षण-क्षण परिवर्तित होता रहता है—कभी प्रसन्न, कभी दुखी, कभी मोहग्रस्त, कभी विरक्त। बुद्धि भी नित्य नहीं है, उसमें भी संशय और निर्णय का क्रम चलता रहता है। इन सबके साक्षी के रूप में जो सत्ता अडोल रहती है, वही आत्मा है। इस आत्मा को पहचानने वाला साधक यह जान लेता है कि “मैं शरीर नहीं, मन नहीं, बुद्धि नहीं, अहंकार नहीं—मैं तो साक्षी चैतन्य हूँ, नित्य, शुद्ध और अचल।”
जब यह विवेक दृढ़ हो जाता है, तब साधक सभी दृश्य पदार्थों—शरीर, इंद्रिय, मन और विश्व—को उसी आत्मा में प्रविष्ट कर देता है, अर्थात् वह जान लेता है कि सब कुछ उसी आत्मा का विस्तार है। यहाँ “तत्र प्रविलाप्य सर्वं” का अर्थ यही है कि दृश्य जगत की पृथकता का भान मिट जाता है और सब कुछ आत्मरूप ही अनुभव होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं रहता—देखने वाला, देखे जाने वाला और देखने की प्रक्रिया, तीनों एक हो जाते हैं। केवल आत्मा ही शेष रहता है, जो स्वयं में ही स्थित है—“तदात्मना तिष्ठति।”
ऐसा साधक, जो आत्मा में स्थित हो गया है और जिसे यह दृढ़ ज्ञान हो गया है कि “मैं ब्रह्म हूँ, मैं अक्रिय, असंग, साक्षी चैतन्य हूँ,” वही वास्तव में मुक्त कहलाता है। उसकी मुक्ति किसी स्थान या समय पर निर्भर नहीं रहती; वह अभी और यहीं मुक्त है। उसके लिए संसार अब बंधनरूप नहीं रहता क्योंकि वह जान चुका है कि बंधन केवल अज्ञानजन्य भ्रांति थी। जैसे रस्सी में सर्प का भ्रम ज्ञान से मिट जाता है, वैसे ही आत्मा और अनात्मा के विवेक से संसार का भ्रम मिट जाता है।
इस प्रकार शंकराचार्य जी इस श्लोक में आत्म-विवेक और अद्वैत अनुभव की चरम अवस्था का वर्णन करते हैं। जब साधक दृश्य जगत से अपने चैतन्य स्वरूप को अलग कर लेता है और सब कुछ उसी चैतन्य में विलीन देखता है, तब वह पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। वह जान लेता है कि न कोई बंधन है, न कोई मुक्ति, केवल आत्मा ही सत्य है — नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त। यही आत्मसाक्षात्कार का परम लक्ष्य है और यही अद्वैत वेदांत का सार।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!