"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 156वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
देहोऽयमन्नभवनोऽन्नमयस्तु कोश-श्चान्नेन जीवति विनश्यति तद्विहीनः ।
त्वक्चर्ममांसरुधिरास्थिपुरीषराशि-र्नायं स्वयं भवितुमर्हति नित्यशुद्धः ॥ १५६ ॥
अर्थ:-अन्न से उत्पन्न हुआ यह देह ही अन्नमय कोश है, जो अन्न से ही जीता है और उसके बिना नष्ट हो जाता है। यह त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, अस्थि और मल आदि का समूह स्वयं नित्य शुद्ध आत्मा नहीं हो सकता।
यह श्लोक शरीर और आत्मा के बीच के भेद को स्पष्ट करता है। श्री शंकराचार्य यहाँ ‘अन्नमय कोश’ का विवेचन करते हुए यह बताते हैं कि मनुष्य का जो स्थूल शरीर है, वह वास्तव में अन्न से उत्पन्न हुआ है, अन्न से ही जीवित रहता है और अंततः अन्न में ही लीन हो जाता है। यह शरीर परिवर्तनशील है, नश्वर है, और बाह्य पदार्थों पर निर्भर है। इसीलिए इसे आत्मा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्मा तो स्वयंसिद्ध, नित्य, शुद्ध और स्वतंत्र सत्ता है। देह के बिना आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, बल्कि देह का अस्तित्व आत्मा के बिना नहीं रह सकता।
शरीर को अन्नमय कोश कहा गया है क्योंकि यह अन्न के द्वारा ही निर्मित और पोषित होता है। माता के गर्भ में भी इसका निर्माण माता द्वारा खाए गए अन्न से ही होता है। जब अन्न का सेवन होता है, तो वही शरीर के ऊतकों, रक्त, मांस और अस्थियों में परिवर्तित होता है। इसी अन्न से इसकी वृद्धि होती है और जब अन्न न मिले, तो यह शरीर धीरे-धीरे दुर्बल होकर नष्ट हो जाता है। इसलिए यह देह केवल एक परिवर्तनशील आवरण है, जो आत्मा का बाहरी आवरण (कोश) मात्र है।
शंकराचार्य आगे कहते हैं कि यह शरीर त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, अस्थि और मल-मूत्र जैसे अस्थिर और अशुद्ध तत्वों से बना हुआ है। यदि कोई व्यक्ति थोड़ा विवेकपूर्वक विचार करे तो समझ जाएगा कि यह देह किसी भी दृष्टि से नित्य या पवित्र नहीं है। यह तो क्षणभंगुर, जड़, और परिवर्तनशील पदार्थों का समूह है। इसके भीतर आत्मा जैसी शुद्ध, चेतन, सच्चिदानंदरूप सत्ता का अस्तित्व नहीं हो सकता। आत्मा इन सबसे भिन्न है — वह नित्य शुद्ध, नित्य मुक्त और अपरिवर्तनीय है।
देह का यह स्वभाव है कि यह निरंतर बदलता रहता है — बाल्यावस्था, युवावस्था, वार्धक्य और मृत्यु तक। किंतु जो इस शरीर में ‘मैं’ कहकर निवास करता है, वह आत्मा न कभी बदलता है, न कभी जन्म लेता है और न कभी नष्ट होता है। देह की नश्वरता का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को है — जब शरीर को चोट लगती है या रोग होता है, तब हम कहते हैं ‘मुझे दर्द हो रहा है’, परन्तु यह ‘मैं’ वास्तव में देह नहीं है। यह तो देह का साक्षी आत्मा है, जो सब कुछ देखता है पर स्वयं अप्रभावित रहता है।
इस प्रकार, इस श्लोक का उद्देश्य साधक को देहाभिमान से मुक्त करना है। जब तक मनुष्य यह मानता रहेगा कि ‘मैं शरीर हूँ’, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र से नहीं निकल सकेगा। क्योंकि शरीर का नाश होना निश्चित है, और आत्मा का अमरत्व तभी अनुभव में आता है जब यह देहाभिमान समाप्त होता है। इसलिए विवेक के माध्यम से यह समझना आवश्यक है कि यह शरीर ‘मेरा’ है, ‘मैं’ नहीं हूँ।
अंततः शंकराचार्य यह स्मरण कराते हैं कि आत्मा नित्य शुद्ध है — न उसे किसी शुद्धि की आवश्यकता है, न वह कभी मलिन होती है। शरीर का नाश होना, उसकी अशुद्धता या परिवर्तन आत्मा को स्पर्श नहीं करते। आत्मा तो साक्षी रूप से सब कुछ देखती रहती है। जब साधक इस सत्य को हृदयंगम कर लेता है, तब वह देह-भान से ऊपर उठकर अपने शुद्ध, सच्चिदानंदरूप स्वरूप का अनुभव करता है — वही मुक्ति का आरंभ है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!