"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 157वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
पूर्वं जनेरपि मृतेरपि नायमस्ति जातःक्षणं क्षणगुणोऽनियतस्वभावः ।
नैको जडश्च घटवत्परिदृश्यमानः स्वात्मा कथं भवति भावविकारवेत्ता ॥ १५७॥
अर्थ:-यह जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात् भी नहीं रहता, क्षणमें जन्म लेता है, क्षणिक गुण वाला है और अस्थिर स्वभाव है; तथा अनेक तत्त्वों का संघात, जड और घटके समान दृश्य है, फिर यह भाव-विकारों का जानने वाला अपना आत्मा कैसे हो सकता है?
शंकराचार्य इस श्लोक में शरीर और आत्मा के भेद को अत्यंत सूक्ष्म रूप से स्पष्ट करते हैं। वे बताते हैं कि यह शरीर नित्य नहीं है, बल्कि यह केवल जन्म और मृत्यु के मध्य ही विद्यमान रहता है। न तो यह जन्म से पहले था और न ही मृत्यु के बाद रहेगा। यह केवल समय विशेष में उत्पन्न होकर कुछ समय तक बना रहता है और फिर नष्ट हो जाता है। इसका अस्तित्व क्षणिक है — जैसे जल पर उठी लहर क्षणभर में बनती और मिट जाती है, वैसे ही यह देह भी क्षणभंगुर है। अतः जो वस्तु स्वयं क्षणिक है, परिवर्तनशील है, वह नित्य आत्मा नहीं हो सकती।
शरीर के बारे में कहा गया है कि यह “क्षणगुणोऽनियतस्वभावः” — अर्थात् इसका स्वभाव स्थिर नहीं है। यह निरंतर परिवर्तनशील है, बचपन, युवावस्था और वार्धक्य के रूप में इसका रूप, आकार, शक्ति, और गुण हर क्षण बदलते रहते हैं। यही परिवर्तनशीलता यह सिद्ध करती है कि यह शरीर आत्मा नहीं है, क्योंकि आत्मा का स्वरूप कभी बदलता नहीं। आत्मा सदा एकरस, अखण्ड, और नित्य है; जबकि शरीर समय, स्थान और परिस्थितियों से प्रभावित होकर निरंतर बदलता रहता है।
इसके आगे शंकराचार्य कहते हैं कि यह शरीर “नैको जडश्च घटवत्परिदृश्यमानः” — यह एक नहीं है, बल्कि अनेक तत्त्वों का समूह है, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि पंचमहाभूतों का संयोग। यह संघात जड़ है, अर्थात् चेतनाशून्य है। जैसे घट मिट्टी से बना होता है और स्वयं ज्ञान नहीं रखता, वैसे ही यह शरीर भी जड़ पदार्थों का बना हुआ है। यह केवल उपकरण है, जिसके माध्यम से आत्मा संसार में अनुभव प्राप्त करती है। जब आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता, तब मनुष्य शरीर को ही ‘मैं’ मान लेता है — यही अज्ञान का मूल है।
अब प्रश्न उठता है कि जो शरीर जड़ है, अस्थिर है, और क्षणिक है, वह “भावविकारवेत्ता” अर्थात् भावों और परिवर्तनों का जानने वाला, अनुभव करने वाला कैसे हो सकता है? ज्ञान, अनुभव, चेतना — ये सब केवल चेतन तत्त्व के गुण हैं, जड़ के नहीं। मिट्टी से बना घट स्वयं यह नहीं जानता कि उसमें जल भरा है या नहीं; उसी प्रकार शरीर भी अपने आप में किसी बात का ज्ञान नहीं रखता। शरीर तभी कार्य करता है जब चेतना उसमें प्रकट होती है — जैसे बल्ब तभी प्रकाश देता है जब विद्युत प्रवाहित होती है। इसलिए यह देह मात्र साधन है, जानने वाला नहीं।
वास्तव में जो ‘भावविकारवेत्ता’ है, वह आत्मा है — जो नित्य, अचल, शुद्ध, और साक्षी रूप है। आत्मा ही शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों के माध्यम से संसार का अनुभव करता है, परंतु स्वयं इनसे भिन्न रहता है। वह न जन्म लेता है, न मरता है, न बदलता है। शंकराचार्य यहाँ साधक को स्मरण कराते हैं कि आत्मा को देह के साथ तादात्म्य करना अज्ञान है। जैसे कोई व्यक्ति आईने में अपने प्रतिबिंब को स्वयं समझ ले तो भ्रम में पड़ जाता है, वैसे ही आत्मा जब शरीर को ‘मैं’ मान लेता है, तो वह बन्धन में पड़ जाता है।
अतः इस श्लोक का सार यही है कि शरीर नित्य आत्मा नहीं है, क्योंकि वह उत्पन्न होकर नष्ट होने वाला, अस्थिर, जड़, और अनेक तत्त्वों का समूह है। जो वस्तु परिवर्तनशील है, वह साक्षी नहीं हो सकती। आत्मा ही वह साक्षी चेतना है जो शरीर, मन, और इंद्रियों के परिवर्तन को देखती है पर स्वयं अपरिवर्तित रहती है। जब साधक इस भेद को अनुभव करता है, तब वह देहाभिमान से मुक्त होकर आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है — यही सच्चा विवेक है, यही मोक्ष का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!