"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 158वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
पाणिपादादिमान्देहो नात्मा व्यंगेऽपि जीवनात् । तत्तच्छक्तेरनाशाच्च न नियम्यो नियामकः ॥ १५८ ॥
अर्थ:-यह हाथ-पैरों वाला शरीर आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि उसके अंग-भंग होने पर भी अपनी शक्ति का नाश न होने के कारण पुरुष जीवित रहता है। इसके सिवा जो शरीर स्वयं शासित है, वह शासक आत्मा कभी नहीं हो सकता।
शंकराचार्य जी इस श्लोक में आत्मा और शरीर के बीच के भेद को अत्यंत सूक्ष्मता से स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं — “पाणिपादादिमान्देहो नात्मा,” अर्थात् यह हाथ-पैरों वाला शरीर आत्मा नहीं है। सामान्यतः मनुष्य अपने शरीर को ही ‘मैं’ मान लेता है — यही भ्रम संसार का मूल कारण है। परंतु गहराई से देखने पर ज्ञात होता है कि शरीर केवल एक उपकरण है, आत्मा नहीं। शरीर के अंग जैसे हाथ, पैर, आँखें, कान आदि कार्य करते हैं, परंतु उन सभी का संचालन किसी अन्य सत्ता के द्वारा होता है। यह सत्ता शरीर नहीं, बल्कि चेतन आत्मा है। इसलिए जो संचालित है, वह आत्मा नहीं हो सकता।
शंकराचार्य आगे कहते हैं — “व्यंगेऽपि जीवनात्।” इसका अर्थ है कि यदि शरीर के किसी अंग का नाश भी हो जाए, तो भी मनुष्य जीवित रहता है। किसी व्यक्ति का हाथ या पैर कट जाए, फिर भी उसमें जीवन बना रहता है। यह इस बात का प्रमाण है कि आत्मा शरीर या उसके किसी भाग में सीमित नहीं है। यदि आत्मा ही शरीर होती, तो शरीर के किसी अंग के नष्ट हो जाने पर जीवन भी समाप्त हो जाता। लेकिन ऐसा नहीं होता। अतः यह निश्चित है कि आत्मा शरीर से परे, स्वतंत्र और साक्षी रूप है।
इसके आगे शंकराचार्य कहते हैं — “तत्तच्छक्तेरनाशाच्च,” अर्थात् शरीर के अंग-भंग होने पर भी जो चेतना, जो अनुभूति की शक्ति बनी रहती है, वही आत्मा की पहचान है। आत्मा की शक्ति कभी नष्ट नहीं होती। शरीर वृद्ध हो सकता है, बीमार हो सकता है, विकलांग भी हो सकता है, परंतु उसके भीतर जो ‘जानने वाला’ तत्व है, वह सदा अखंड, अजर और अमर रहता है। वह न तो समय से नष्ट होता है, न ही शरीर की दशा से प्रभावित। शरीर तो केवल आत्मा का एक बाह्य आवरण है, जैसे वस्त्र शरीर को ढकते हैं, वैसे ही शरीर आत्मा को ढकता है।
श्लोक के अंतिम भाग में कहा गया है — “न नियम्यो नियामकः।” शरीर जो स्वयं नियंत्रित होता है, वह कभी नियंत्रक नहीं हो सकता। शरीर अपने स्वभाव से जड़ है; वह स्वयं किसी कार्य का निर्णय नहीं ले सकता। उसकी क्रियाएँ मन, बुद्धि और प्राण के माध्यम से चलती हैं, जिनके पीछे चेतना या आत्मा का साक्षी भाव विद्यमान है। जैसे रथ बिना सारथी के नहीं चल सकता, वैसे ही शरीर भी आत्मा के बिना निर्जीव है। आत्मा ही उसके भीतर जीवन, गति और अनुभव का कारण है।
इस प्रकार यह श्लोक हमें यह समझाता है कि शरीर केवल साधन है, आत्मा नहीं। आत्मा ही वह सच्चा शासक है जो शरीर, इन्द्रियों, मन और बुद्धि को संचालित करता है। शरीर के न रहने पर भी आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, क्योंकि आत्मा नित्य और अविनाशी है। यदि हम इस सत्य को समझ लें कि “मैं शरीर नहीं हूँ,” तो जीवन का आधा बंधन उसी क्षण टूट जाता है। यही विवेक की आरंभिक अवस्था है — आत्मा और अनात्मा के बीच का सही भेद जानना। शंकराचार्य का यह उपदेश हमें शरीर की सीमाओं से ऊपर उठकर आत्मा की अमर सत्ता को अनुभव करने की प्रेरणा देता है, जहाँ कोई अंगभंग, रोग, या मृत्यु का भय नहीं, केवल शुद्ध चेतना का असीम प्रकाश है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!