"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 159वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
देहतद्धर्मतत्कर्मतदवस्थादिसाक्षिणः ।
स्वत एव स्वतः सिद्धं तद्वैलक्षण्यमात्मनः ॥ १५९ ॥
अर्थ:-देह, उस के धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओं के साक्षी आत्मा की उस से पृथक्ता स्वयं ही स्वतः सिद्ध है।
इस श्लोक में श्री आदि शंकराचार्य जी आत्मा और देह के भेद को अत्यंत सूक्ष्मता से प्रकट करते हैं। वे कहते हैं — "देह, उसके धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओं के साक्षी आत्मा की उस से पृथक्ता स्वयं ही स्वतः सिद्ध है।" अर्थात आत्मा और शरीर का भेद किसी तर्क या प्रमाण से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है; यह भेद तो स्वयं अनुभव से ही स्पष्ट है। जो तत्व देह, उसके धर्मों, कर्मों और अवस्थाओं को जानने वाला है, वह उनसे भिन्न ही है — यही आत्मा है।
शरीर निरंतर परिवर्तनशील है। यह जन्म लेता है, बढ़ता है, वृद्ध होता है और अंततः नष्ट भी हो जाता है। इसके धर्म, जैसे – मोटापन, दुबलेपन, रूप, रंग, स्वास्थ्य या रोग आदि, समय-समय पर बदलते रहते हैं। इसके कर्म भी निरंतर प्रवाहमान हैं — चलना, बोलना, खाना, सोना आदि। इसकी अवस्थाएँ भी परिवर्तनशील हैं — जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। इन सभी परिवर्तनों के बीच एक तत्व ऐसा है जो इन सबका साक्षी बना रहता है, जो जानता है कि “मैं जागा हूँ”, “मैं स्वप्न देख रहा हूँ”, “मैं गहरी नींद में था”। वही तत्व आत्मा है, और वह शरीर से भिन्न है।
यदि आत्मा शरीर ही होती, तो शरीर के नष्ट होने पर आत्मा भी नष्ट हो जानी चाहिए थी। परंतु ऐसा नहीं होता। जब शरीर के किसी अंग का क्षय होता है या जब शरीर वृद्ध होता है, तब भी “मैं हूँ” का अनुभव बना रहता है। यह अनुभूति शरीर पर निर्भर नहीं है। शरीर तो केवल आत्मा का उपकरण (उपाधि) मात्र है, जैसे दीपक का प्रकाश उसके आसपास की वस्तुओं को प्रकाशित करता है, परंतु उनसे प्रभावित नहीं होता। उसी प्रकार आत्मा देह, मन, बुद्धि आदि के धर्मों का साक्षी होते हुए भी उनसे अप्रभावित रहती है।
शंकराचार्य जी कहते हैं कि यह वैलक्षण्य — अर्थात आत्मा की देह से भिन्नता — “स्वतः सिद्ध” है। इसे सिद्ध करने के लिए बाहरी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभव से जाना जा सकता है। जब हम कहते हैं — “मेरा शरीर थक गया है”, “मेरा मन उदास है”, “मेरा बुद्धि भ्रमित है” — तब अनजाने में ही यह स्वीकार कर लेते हैं कि “मैं” शरीर, मन या बुद्धि नहीं हूँ, क्योंकि जानने वाला “मैं” इन सबसे भिन्न है। जानने वाला और ज्ञेय — ये कभी एक नहीं हो सकते। शरीर ज्ञेय है, आत्मा ज्ञाता है; इसलिए आत्मा देह से पृथक है।
जैसे आकाश घट, मठ, या कूप में सीमित प्रतीत होता है, पर वास्तव में सबमें एक ही अखण्ड आकाश व्याप्त रहता है, वैसे ही आत्मा विभिन्न शरीरों में सीमित प्रतीत होती है, परंतु वह वास्तव में सर्वव्यापक, निष्क्रिय और साक्षीस्वरूप है। शरीर, मन, और इंद्रियाँ बदलती रहती हैं, पर आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है, न किसी अवस्था से प्रभावित होती है। वह केवल साक्षी है — न कर्ता, न भोक्ता।
इस प्रकार इस श्लोक में शंकराचार्य जी साधक को यह बोध कराना चाहते हैं कि आत्मा को शरीर, उसके धर्म, कर्म या अवस्थाओं के साथ जोड़ना ही अज्ञान है। जब यह अज्ञान दूर होता है और मनुष्य यह अनुभव करता है कि “मैं देह नहीं, मैं साक्षी चैतन्य हूँ”, तब ही मोक्ष का द्वार खुलता है। आत्मा का यह स्वरूप अनादि, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है — यह ज्ञान ही आत्मसाक्षात्कार का सार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!