"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 160वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
कुल्यराशिर्मांसलिप्तो मलपूर्णोऽतिकश्मलः ।
कथं भवेदयं वेत्ता स्वयमेतद्विलक्षणः ॥ १६० ॥
अर्थ:-हड्डियों का समूह, मांस से लिथड़ा हुआ और मल से भरा हुआ यह अति कुत्सित देह, अपने से भिन्न अपना जानने वाला स्वयं ही कैसे हो सकता है?
शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक आत्मा और देह के भेद को अत्यंत गहराई से स्पष्ट करता है। इसमें कहा गया है कि यह शरीर अस्थियों का समूह है, जो मांस, रक्त, और मल-मूत्र से लिथड़ा हुआ है, और अपनी प्रकृति में अत्यंत अशुद्ध तथा कुत्सित है। ऐसा देह स्वयं को जानने वाला, साक्षी, या चेतन कैसे हो सकता है? आत्मा, जो सदा शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है, इस जड़, परिवर्तनशील और मल-मांस से बने शरीर से सर्वथा भिन्न है। शंकराचार्य यहाँ विवेक का अभ्यास कराते हुए साधक को यह समझाना चाहते हैं कि शरीर आत्मा नहीं है, बल्कि आत्मा का केवल एक उपकरण मात्र है, जिसके माध्यम से अनुभव होते हैं।
देह पंचभूतों से निर्मित है—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। यह परिवर्तनशील है, रोगग्रस्त होता है, वृद्ध होता है और अंततः नष्ट हो जाता है। इस देह का कोई भी अंग अपने आप में चेतन नहीं है। जब चेतना या प्राण शक्ति देह से अलग हो जाती है, तो यह केवल एक शव रह जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि चेतन तत्व—आत्मा—देह से भिन्न है। आत्मा ही वह सत्ता है जो इस देह में रहते हुए उसे जीवन, अनुभूति और ज्ञान प्रदान करती है। जब यह आत्मा शरीर से अलग होती है, तब यह देह निष्प्राण और निर्जीव हो जाती है। इस प्रकार आत्मा साक्षी स्वरूप है, देह का साक्षात्कर्ता है, न कि देह स्वयं।
शरीर की प्रकृति मलिनता से भरी हुई है। जब हम उसके आंतरिक तत्वों की ओर देखते हैं—रक्त, मांस, अस्थि, मूत्र, मल—तो कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे ‘पवित्र’ या ‘प्रिय’ कहा जा सके। फिर भी अज्ञानवश मनुष्य इस शरीर को ‘मैं’ मानकर उससे आसक्त रहता है। यही देहाभिमान बंधन का कारण है। जब तक साधक शरीर को आत्मा समझता रहेगा, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहेगा। परंतु जब वह समझ लेता है कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ’, बल्कि इस देह का साक्षी, चेतन आत्मा हूँ—तब ही उसके भीतर मुक्ति की भावना जागृत होती है।
यह श्लोक यह भी बताता है कि देह स्वयं को जानने वाला नहीं हो सकता। जानना, अनुभव करना या साक्षीभाव रखना केवल चेतन सत्ता का कार्य है। देह जड़ है, इसलिए वह स्वयं का या किसी अन्य वस्तु का ज्ञान नहीं रख सकती। जिस प्रकार दीपक स्वयं जड़ होने पर भी प्रकाश के माध्यम से वस्तुओं को प्रकट करता है, वैसे ही आत्मा के प्रकाश से यह शरीर और जगत प्रकट होते हैं। आत्मा के बिना न तो शरीर का अस्तित्व रह सकता है, न उसका कोई कार्य संपन्न हो सकता है।
साधक के लिए यह विवेक अत्यंत आवश्यक है कि वह बार-बार चिंतन करे—“यह शरीर मैं नहीं हूँ। यह मुझसे भिन्न, जड़, परिवर्तनशील और नाशवान है। मैं वह चेतन सत्ता हूँ जो इसका साक्षी है।” यही आत्मानात्म विवेक की प्रक्रिया है, जो धीरे-धीरे देहाभिमान को मिटाकर आत्मज्ञान की ओर ले जाती है। जब यह अनुभूति दृढ़ हो जाती है कि ‘मैं देह नहीं, आत्मा हूँ’, तब ही जीवन में वैराग्य, शांति और मुक्ति का द्वार खुलता है। शंकराचार्य के इस श्लोक का यही सार है—आत्मा सदा निर्मल, अमर और साक्षी है; देह केवल एक अशुद्ध, जड़ आवरण है, जिसका आत्मा से कोई तादात्म्य नहीं है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!