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सोमवार, 3 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 161वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 161वां श्लोक"

"अन्नमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

त्वमांसमेदोऽस्थिपुरीषराशा-वहंमतिं मूढजनः करोति ।

विलक्षणं वेत्ति निजस्वरूपं विचारशीलो परमार्थभूतम् ॥ १६१ ॥

अर्थ:-त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मल की राशि रूप इस देह में मूढजन ही अहंबुद्धि करते हैं। विचारशील तो अपने पारमार्थिक स्वरूप को इससे पृथक् ही जानते हैं।

यह श्लोक विवेकचूडामणि का अत्यंत गहन दार्शनिक उपदेश प्रस्तुत करता है। इसमें शंकराचार्य यह स्पष्ट कर रहे हैं कि मूढ़ और विचारशील व्यक्ति में क्या अंतर है। मूढ़ व्यक्ति इस शरीर को ही “मैं” मान लेता है, जबकि विवेकी या विचारशील व्यक्ति जानता है कि यह शरीर आत्मा नहीं है, बल्कि आत्मा इससे सर्वथा भिन्न, शुद्ध और नित्य है। जब तक मनुष्य यह समझता है कि “मैं यह देह हूँ”—यह त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मल का समूह हूँ—तब तक वह अज्ञान के जाल में बंधा रहता है। यही देहाभिमान बंधन का मूल कारण है, और यही अज्ञान ही संसार का चक्र चलाता है।

शरीर वस्तुतः पंचमहाभूतों से निर्मित है—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। त्वचा, मांस, अस्थि, मेद और पुरीष (मल) इन सबका संयोजन मात्र हैं। यह शरीर परिवर्तनशील है, नाशवान है, और जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर विकारों से युक्त रहता है। किन्तु मूढ़ व्यक्ति इस अस्थिर देह को ही स्थायी आत्मा मान बैठता है। वह देह से जुड़े सुख-दुःख, हानि-लाभ, यश-अपयश को ही अपना मानता है और इसी भ्रम में जीवन व्यतीत करता है। उसका “अहं” शरीर के साथ इतना तादात्म्य बना लेता है कि आत्मा का बोध असंभव हो जाता है।

इसके विपरीत, जो व्यक्ति विवेकवान है—जो विचारशील है—वह जानता है कि आत्मा इस शरीर से विलक्षण है। वह समझता है कि शरीर तो केवल एक साधन है, आत्मा का आवरण है, किंतु आत्मा स्वयं शरीर से न तो उत्पन्न होती है, न नष्ट होती है। वह साक्षीभाव से इस शरीर के परिवर्तन को देखती है, किंतु स्वयं उसमें परिवर्तन नहीं आता। जैसे वस्त्र के पुराने होने पर मनुष्य नया वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा देह के नाश पर दूसरी देह धारण करती है। इस दृष्टिकोण से विचारशील व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप का बोध प्राप्त करता है, जो सच्चिदानंद स्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है।

जब आत्मा का साक्षात्कार होता है, तब यह देह केवल एक उपकरण के रूप में दिखाई देती है, न कि “मैं” के रूप में। जैसे कोई ज्ञानी व्यक्ति दर्पण में अपनी छवि देखकर यह नहीं मानता कि वह स्वयं छवि है, वैसे ही विवेकी व्यक्ति इस शरीर को आत्मा नहीं मानता। वह जानता है कि यह देह केवल दृश्य है और आत्मा दृश्य का द्रष्टा है। आत्मा का शरीर से वही संबंध है जो सूर्य का किरणों से है—किरणें आती-जाती रहती हैं, पर सूर्य अचल और अप्रभावित रहता है।

शंकराचार्य यह शिक्षा देना चाहते हैं कि यदि मुक्ति चाहिए तो देह से तादात्म्य का त्याग करना होगा। जब तक व्यक्ति यह सोचता रहेगा कि “मैं यह शरीर हूँ”, तब तक उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिल सकती। परंतु जब वह गहराई से विचार करता है और आत्मा को देह से पृथक अनुभव करता है, तब उसके भीतर से यह अज्ञान दूर हो जाता है। तब वह जान जाता है कि “मैं” यह नश्वर शरीर नहीं, बल्कि उस परमात्मा का अंश हूँ जो अनादि, अनंत और अविनाशी है।

इस प्रकार यह श्लोक केवल देह और आत्मा के भेद की शिक्षा नहीं देता, बल्कि यह आत्मबोध का द्वार खोलता है। यह हमें स्मरण कराता है कि जो देह के भीतर “मैं” रूप से विद्यमान है, वही सच्चा स्वरूप है। वही परमात्मा का प्रकाश है, और वही परमार्थभूत सत्य है। जब यह बोध स्थायी हो जाता है, तब मनुष्य संसार के दुःखों से मुक्त होकर आत्मानंद में स्थित हो जाता है। यही सच्चा ज्ञान और यही मोक्ष का मार्ग है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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