"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 162वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
देहोऽहमित्येव जडस्य बुद्धि-देहे च जीवे विदुषस्त्वहंधीः ।
विवेकविज्ञानवतो महात्मनो ब्रह्माहमित्येव मतिः सदात्मनि ॥ १६२॥
अर्थ:-जड पुरुषों की 'मैं देह हूँ'- ऐसी देह में अहंबुद्धि होती है, विद्वान् (शास्त्रज्ञ) की जीवमें और विवेक-विज्ञानयुक्त महात्मा की 'मैं ब्रह्म हूँ'-ऐसी सत्य आत्मा में ही अहंबुद्धि होती है।
इस श्लोक में श्री शंकराचार्य ने अहंभाव या ‘मैं-बुद्धि’ के तीन स्तरों का अत्यंत गहन विवेचन किया है। सामान्यतः मनुष्य अपनी पहचान जिस वस्तु से करता है, वही उसका ‘अहं’ बन जाता है। जो व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ होता है, वह देह को ही ‘मैं’ मान लेता है। शंकराचार्य कहते हैं कि ‘देहोऽहमिति एव जडस्य बुद्धिः’—अर्थात अज्ञानी, अविवेकी, जड़ बुद्धि वाले मनुष्य की धारणा यही रहती है कि “मैं शरीर हूँ।” उसका सारा जीवन इसी देह के संरक्षण, सौन्दर्य, सुख-सुविधा और नाम-यश में व्यतीत होता है। वह नहीं जानता कि यह शरीर पंचमहाभूतों से बना हुआ है, नश्वर है, और इसका ‘मैं’ से कोई वास्तविक संबंध नहीं। उसकी ‘मैं-बुद्धि’ जड़ में लगी रहती है, इसलिए वह संसार के चक्र में फँसा रहता है।
दूसरे प्रकार के व्यक्ति वे हैं जो शास्त्रों को जानते हैं, जिन्हें आत्मा और शरीर का सैद्धांतिक भेद ज्ञात है, परंतु जिनका अनुभव अभी पूर्ण नहीं हुआ। उनके विषय में शंकराचार्य कहते हैं—‘देहे च जीवे विदुषः त्वहंधीः’—अर्थात् विद्वान व्यक्ति, जो तर्क और शास्त्र से आत्मा के अस्तित्व को जानता है, उसकी ‘मैं-बुद्धि’ शरीर में नहीं, बल्कि ‘जीव’ में होती है। वह जानता है कि मैं शरीर नहीं, बल्कि यह सूक्ष्म देह का स्वामी जीव हूँ—जो इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करता है, जो सुख-दुःख का भोगी है, और जो शरीर के मरने पर भी सूक्ष्म रूप में बना रहता है। यह समझ पहली स्थिति से ऊँची है, परंतु यह अभी भी द्वैत में है—क्योंकि यहाँ भी जीव और ब्रह्म के बीच भेद बना रहता है।
तीसरी स्थिति सर्वश्रेष्ठ है—‘विवेकविज्ञानवतो महात्मनः ब्रह्माहमिति एव मतिः सदात्मनि’। यह उस महात्मा की अवस्था है जिसने न केवल शास्त्रों से ज्ञान प्राप्त किया है, बल्कि गहन विवेक, निरंतर साधना और अनुभव के माध्यम से आत्मा और ब्रह्म का ऐक्य प्रत्यक्ष रूप से जान लिया है। ऐसे ज्ञानी की ‘मैं-बुद्धि’ अब न देह में है, न जीवभाव में, बल्कि सत्य आत्मा—ब्रह्म में स्थिर हो गई है। वह अनुभूति करता है—‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘शिवोऽहम्’, ‘सच्चिदानन्दस्वरूपोऽहम्’। उसकी दृष्टि में सब कुछ उसी एक आत्मा का विस्तार है; देह, मन, इन्द्रियाँ, और संसार—सब माया के खेल मात्र हैं।
यह क्रम साधना के तीन चरणों को भी दर्शाता है—अविद्या, विद्या और परविद्या। पहले मनुष्य अज्ञान में रहता है, देह को ही आत्मा समझता है; फिर शास्त्रज्ञान से जीव-भाव को स्वीकार करता है, और अंततः ब्रह्मज्ञान से देह, मन और जीव—सभी को मिथ्या जानकर केवल ब्रह्म में स्थित हो जाता है। यही आत्म-साक्षात्कार की पूर्णता है। जब तक अहंभाव देह या जीव से जुड़ा है, तब तक जन्म-मृत्यु और सुख-दुःख के चक्र से मुक्ति संभव नहीं। परंतु जब ‘अहं’ का केंद्र स्वयं ब्रह्म बन जाता है, तब द्वैत का अंत हो जाता है और मुक्त अवस्था की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार शंकराचार्य इस श्लोक के माध्यम से साधक को यह दिशा देते हैं कि अपने ‘मैं’ को बार-बार परखो। क्या वह जड़ देह में है, सीमित जीव में है, या अखंड ब्रह्म में स्थित है? जैसे-जैसे विवेक बढ़ेगा, ‘मैं’ की सीमा फैलती जाएगी—और अंततः यह व्यक्तिगत अहं शुद्ध आत्मा में विलीन होकर पूर्णता को प्राप्त होगा। यही अद्वैत वेदान्त का परम लक्ष्य है—अहं ब्रह्मास्मि की अनुभूति।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!