"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 163वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अत्रात्मबुद्धिं त्यज मूढबुद्धे त्वमांसमेदोऽस्थिपुरीषराशौ 1
सर्वात्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे कुरुष्व शान्तिं परमां भजस्व ॥ १६३॥
अर्थ:-अरे मूर्ख ! इस त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मलादि के समूह में आत्मबुद्धि छोड़ और सर्वात्मा निर्विकल्प ब्रह्म में ही आत्मभाव करके परम शान्ति का भोग कर।
इस श्लोक में आचार्य शंकराचार्य जीव को संबोधित करते हुए गहन आत्मविवेक का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं — “अत्र आत्मबुद्धिं त्यज मूढबुद्धे त्वमांसमेदोऽस्थिपुरीषराशौ” — हे मूर्ख! इस त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मल के समूह रूप शरीर में ‘मैं हूँ’ ऐसी बुद्धि मत कर। देह केवल पंचमहाभूतों से निर्मित एक जड़ पदार्थ है, जो नित्य परिवर्तनशील और नाशवान है। इसमें ‘अहंभाव’ करना अज्ञान का परिणाम है। यह शरीर जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर परिवर्तनशील है—कभी बालक, कभी युवा, कभी वृद्ध—परंतु जो इसे देख रहा है, वह साक्षी आत्मा कभी नहीं बदलता। इसलिए देह में आत्माभिमान रखना ऐसा ही है जैसे किसी मृगतृष्णा के जल में वास्तविकता खोजनी।
जब मनुष्य देह को ही ‘मैं’ मान लेता है, तब उससे जुड़े सुख-दुःख, रोग-शोक, सम्मान-अपमान सभी को स्वयं पर ग्रहण कर लेता है। यही संसार का बंधन है। देह, मन, इंद्रिय आदि सभी केवल साधन हैं—आत्मा नहीं। आत्मा तो वह साक्षी है जो इन सबका अनुभव करता है, परंतु उनसे कभी मिलित नहीं होता। जैसे आकाश बादलों से ढँक जाता है, परंतु उनसे मिलकर दूषित नहीं होता, वैसे ही आत्मा शरीर में स्थित होकर भी उससे कभी दूषित नहीं होती। मूर्ख वही है जो शरीर के साथ अपनी पहचान बाँध लेता है और उसकी नश्वरता में स्थायित्व खोजता है।
शंकराचार्य आगे कहते हैं — “सर्वात्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे कुरुष्व शान्तिं परमां भजस्व।” अर्थात्, इस नश्वर शरीर से अपने ‘मैंपन’ को हटाकर उस सर्वव्यापक, निर्विकल्प ब्रह्म में आत्मभाव करो, जो सभी प्राणियों का वास्तविक स्वरूप है। वही ब्रह्म न जन्म लेता है, न मरता है; न उसमें कोई भेद है, न कोई विकल्प। वह केवल ‘सत्त्-चित्-आनन्द’ स्वरूप है — शुद्ध अस्तित्व, चेतना और आनन्द का महासागर। जब साधक देह, मन, और अहंकार के पार जाकर इस ब्रह्म को अपने आत्मस्वरूप के रूप में जान लेता है, तब उसे परम शान्ति प्राप्त होती है।
यह शान्ति बाह्य परिस्थितियों से नहीं, अपितु आत्मसाक्षात्कार से उत्पन्न होती है। यह शान्ति उस समय आती है जब ज्ञानी यह समझ लेता है कि ‘मैं’ यह शरीर नहीं, न यह मन हूँ, बल्कि उन दोनों का साक्षी हूँ। जब यह दृढ़ निश्चय हो जाता है, तब कोई भी सुख-दुःख, हानि-लाभ, जन्म-मृत्यु उसकी अन्तःशान्ति को विचलित नहीं कर सकते। यही अवस्था मुक्ति की है, जहाँ आत्मा अपने स्वभाविक आनन्द में स्थित रहती है।
विवेकचूड़ामणि का यह श्लोक जीव को अज्ञान से जाग्रत करने का आह्वान है। आचार्य की भाषा करुणामय है—वह “मूढबुद्धे” कहकर डाँटते अवश्य हैं, परंतु वह डाँट उपदेशमय है, जो शिष्य को झकझोरकर सत्य की ओर ले जाती है। यह स्मरण कराता है कि मनुष्य का वास्तविक कार्य देहाभिमान त्यागकर आत्मा की शुद्ध, अद्वितीय सत्ता में स्थिर होना है।
अतः सार यह है कि देह में आत्माभिमान त्यागकर जब मनुष्य ‘सर्वात्मा ब्रह्म’ में आत्मभाव करता है, तब वह अपने भीतर उस अमर, अविकारी, और अनंत सत्य को अनुभव करता है। यही परम शान्ति है — जो न समय से न परिस्थितियों से प्रभावित होती है। यही ब्रह्मानुभव, यही मोक्ष और यही जीवन का परम लक्ष्य है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!