"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 164वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
देहेन्द्रियादावसति भ्रमोदितां विद्वानहन्तां न जहाति यावत् ।
तावन्न तस्यास्ति विमुक्तिवार्ता-प्यस्त्वेष वेदान्तनयान्तदर्शी ॥ १६४॥
अर्थ:-जब तक विद्वान् असत् देह और इन्द्रिय आदि में भ्रमसे उत्पन्न हुई अहंता को नहीं त्यागता, तब तक वह वेदान्त-सिद्धान्तों का पारदर्शी क्यों न हो, उसके मोक्ष की कोई बात ही नहीं है।
यह श्लोक साधक को अत्यंत गहन आत्मचिंतन की ओर ले जाता है। शंकराचार्य यहाँ स्पष्ट रूप से बताते हैं कि केवल वेदान्त का बौद्धिक ज्ञान, केवल ग्रंथों का अध्ययन या दर्शन के सिद्धान्तों की समझ ही मुक्ति नहीं देती। जब तक ‘अहंता’ — अर्थात् देह, इन्द्रिय, मन आदि में ‘मैं’ की भावना — बनी रहती है, तब तक ज्ञान भी केवल सैद्धान्तिक रह जाता है, अनुभूति नहीं बन पाता। शंकराचार्य कहते हैं कि चाहे व्यक्ति वेदान्त के सभी न्यायों, उपनिषदों के रहस्यों और ब्रह्मसूत्रों के अर्थों का पारंगत ज्ञाता क्यों न हो, यदि वह अब भी देह में, इन्द्रियों में, या मन-बुद्धि में ‘मैं’ का भाव रखता है, तो उसके लिए मोक्ष की चर्चा व्यर्थ है।
‘देहेन्द्रियादावसति भ्रमोदितां अहन्ताम्’ — यहाँ ‘भ्रमोदिता’ शब्द अत्यंत अर्थपूर्ण है। ‘अहंता’ स्वाभाविक नहीं है; वह भ्रम से उत्पन्न है। वास्तविक आत्मा तो शुद्ध साक्षी है — देह, इन्द्रिय, मन से परे। परन्तु अज्ञान के कारण आत्मा अपने को देह के साथ तादात्म्य कर लेती है — “मैं यह शरीर हूँ”, “मैं देख रहा हूँ”, “मैं सोच रहा हूँ” — यही मिथ्या अहंता है। जब तक यह भ्रांति जीव के भीतर जीवित है, तब तक वह आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकता। यह अहंकार ही बन्धन का कारण है।
वेदान्त का उद्देश्य केवल यह सिखाना नहीं कि ब्रह्म ही सत्य है और जगत् मिथ्या है, बल्कि यह है कि साधक उस सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव करे। यह अनुभव तभी संभव है जब देह और इन्द्रिय की पहचान पूरी तरह समाप्त हो जाए। जब साधक यह प्रत्यक्ष जान लेता है कि शरीर परिवर्तनशील है, इन्द्रियाँ नाशवान हैं, मन चंचल है, और इन सबका साक्षी जो अपरिवर्तनीय है — वही ‘मैं’ हूँ — तब अहंता का अंत होता है। जब ‘मैं देह हूँ’ यह भाव मिटता है, तब ही ‘मैं ब्रह्म हूँ’ का ज्ञान प्रकट होता है।
शंकराचार्य यहाँ उस सूक्ष्म अहंकार की ओर संकेत करते हैं जो कई बार ज्ञानी पुरुषों में भी रह जाता है — यह सोच कि “मैं वेदान्त जानता हूँ”, “मैं शास्त्रज्ञ हूँ”, “मैंने आत्मज्ञान प्राप्त किया है।” यह भी एक प्रकार की अहंता है, और जब तक यह बनी रहती है, मुक्ति अधूरी है। वास्तविक मुक्ति तो अहंता और ममता के पूर्ण विसर्जन में है। जब तक ‘मैं’ का कोई भी भाव, चाहे वह सूक्ष्म ही क्यों न हो, जीव के भीतर है, तब तक वह ब्रह्म का अनुभव नहीं कर सकता।
‘तावन्न तस्यास्ति विमुक्तिवार्ता’ — अर्थात् ऐसे व्यक्ति के लिए ‘विमुक्ति’ या ‘मोक्ष’ की बात करना ही व्यर्थ है। मोक्ष कोई भविष्य में मिलने वाली वस्तु नहीं है; वह तो आत्मस्वरूप की ही अनुभूति है। किंतु जब तक आत्मा को देह के साथ जोड़ा जा रहा है, तब तक आत्मा का स्वभाव — जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है — कैसे प्रकट हो सकता है?
इसलिए शंकराचार्य का यह उपदेश प्रत्येक साधक के लिए एक चेतावनी है कि केवल वेदान्त पढ़ने से या प्रवचन सुनने से मुक्ति नहीं होती। सच्चा साधक वही है जो निरंतर आत्मविचार के द्वारा इस ‘देह-अहंता’ को विलीन कर दे और अपने शुद्ध, निराकार, निर्विकल्प आत्मस्वरूप में स्थित हो जाए। तभी वह अनुभव कर सकता है — “नाहं देहो न मे देहः, चिदानन्दरूपोऽहमस्मि।” यही वास्तविक वेदान्त है, यही सच्चा मोक्ष है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!