"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 165वां श्लोक"
"अन्नमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
छायाशरीरे प्रतिविम्बगात्रे यत्स्वप्नदेहे हृदि कल्पितांगे।
यथात्मबुद्धिस्तव नास्ति काचि-ज्जीवच्छरीरे च तथैव मास्तु ॥ १६५ ॥
अर्थ:-छाया, प्रतिविम्ब, स्वप्न और मन में कल्पित किये हुए शरीरों में जिस प्रकार तेरी कभी आत्मबुद्धि नहीं होती, उसी प्रकार जीवित शरीर में भी कभी न होनी चाहिये।
इस श्लोक में श्री आदि शंकराचार्य जीव और देह के भेद को अत्यंत सूक्ष्मता से स्पष्ट करते हुए साधक को यह बोध कराते हैं कि जिस प्रकार छाया, प्रतिबिंब, स्वप्न अथवा कल्पित शरीर में आत्मभाव नहीं होता, उसी प्रकार इस स्थूल देह में भी ‘मैं’ की भावना नहीं होनी चाहिए। यहाँ वे यह समझा रहे हैं कि आत्मा न तो छाया है, न प्रतिबिंब है, न स्वप्न में देखा गया शरीर है, और न ही यह देह। जैसे व्यक्ति अपनी छाया को देखकर यह नहीं सोचता कि ‘यह मैं हूँ’, उसी तरह प्रतिबिंब में दिखने वाले शरीर को भी कोई बुद्धिमान व्यक्ति स्वयं नहीं मानता। इसी प्रकार स्वप्न में देखे गए शरीर को भी हम वास्तविक नहीं मानते, क्योंकि वह केवल मन की कल्पना से निर्मित होता है। उसी प्रकार यह जाग्रत अवस्था का शरीर भी आत्मा नहीं है, क्योंकि यह भी केवल मायिक और अस्थायी है, आत्मा से पृथक है।
जब मनुष्य ‘मैं यह शरीर हूँ’ ऐसा मान लेता है, तभी अज्ञान का आरंभ होता है। देह का जन्म होता है, वह बदलती रहती है और अंततः नष्ट हो जाती है। परंतु आत्मा साक्षी रूप में सदा अविनाशी रहती है। वह न जन्म लेती है, न मरती है, न बदलती है। आत्मा का देह से संबंध केवल उपाधि के कारण प्रतीत होता है, जैसे दर्पण में प्रतिबिंब दर्पण से अलग होते हुए भी उसमें दिखाई देता है। यह प्रतिबिंब वास्तव में दर्पण का गुण नहीं है, केवल दृश्य भ्रम है। उसी प्रकार आत्मा का देह से संबंध केवल ‘अविद्या’ अर्थात अज्ञान के कारण ही दिखाई देता है। जब यह अज्ञान मिटता है, तब ज्ञानी जान लेता है कि ‘मैं यह शरीर नहीं हूँ, मैं शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ।’
छाया शरीर का अनुसरण करती है, परंतु वह स्वयं शरीर नहीं होती। प्रतिबिंब जल या दर्पण में दिखाई देता है, परंतु वह वास्तविक शरीर का केवल एक आभास है। स्वप्न में देखा गया शरीर भी केवल चित्त की लहरियों से उत्पन्न होता है, और जागने पर समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार यह जाग्रत देह भी पंचभूतों से बनी एक अस्थायी रचना मात्र है। इसमें आत्मभाव रखना उसी प्रकार का भ्रम है जैसे दर्पण में दिखे हुए प्रतिबिंब को स्वयं मान लेना। ज्ञानी पुरुष समझता है कि शरीर की वृद्धि, रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु—all ये सब केवल देह से संबंधित हैं, आत्मा से नहीं। आत्मा तो इन सबकी साक्षी है, कभी प्रभावित नहीं होती।
शंकराचार्य यहाँ यह उपदेश दे रहे हैं कि जब छाया, प्रतिबिंब, स्वप्न और कल्पित शरीर में हम आत्मबुद्धि नहीं करते, तो फिर इस जाग्रत देह में भी ‘मैं’ की भावना क्यों करें? यह देह भी उतनी ही मायिक है जितने वे अन्य शरीर। आत्मा का संबंध केवल साक्षित्व तक सीमित है—वह देखती है, जानती है, परंतु किसी में लिप्त नहीं होती। जो साधक इस सत्य को हृदयंगम कर लेता है, उसके लिए देह, मन, इंद्रियों से ऊपर आत्मा का अनुभव सहज हो जाता है। वह जान लेता है कि ‘मैं न यह शरीर हूँ, न इंद्रियाँ, न मन; मैं तो सर्वव्यापी, नित्य, शुद्ध चैतन्य स्वरूप ब्रह्म हूँ।’ यही विवेक की चरम परिणति है—देह से पूर्ण वैराग्य और आत्मा में अखंड निष्ठा।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!