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शनिवार, 8 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 166वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 166वां श्लोक"

"अन्नमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

देहात्मधीरेव नृणामसद्धियां जन्मादिदुःखप्रभवस्य बीजम् ।

यतस्ततस्त्वं जहि तां प्रयत्ना-त्त्यक्ते तु चित्ते न पुनर्भवाशा ॥ १६६ ॥

अर्थ:-क्योंकि देहात्म-बुद्धि ही असद्बुद्धि मनुष्यों के जन्मादि दुःखों की उत्पत्ति की कारण है, अतः उसे तू प्रयत्नपूर्वक छोड़ दे, उस बुद्धि के छूट जाने पर फिर पुनर्जन्म की कोई आशंका न रहेगी।

इस श्लोक में आदि शंकराचार्य मनुष्य की सबसे गहरी और मूलभूत अज्ञानता की ओर संकेत करते हैं, जो है — देह को आत्मा मानना। वे कहते हैं कि “देहात्मधीः एव नृणाम् असद्धियाम् जन्मादिदुःखप्रभवस्य बीजम्” — अर्थात जो मनुष्य देह में ही आत्मा का भाव रखते हैं, वे असद्बुद्धि वाले हैं, और यही देहात्मबुद्धि संसार के समस्त दुःखों, जन्म-मृत्यु के चक्र और मोह-माया के कारणों का बीज है। जब तक यह भ्रम मन में बना रहता है कि ‘मैं यह शरीर हूँ’, तब तक जीव जन्म लेता है, मरता है, पुनः जन्म लेता है और अनंत प्रकार के सुख-दुःखों का अनुभव करता है। वास्तव में आत्मा शरीर नहीं है, बल्कि शरीर आत्मा में ही प्रकट हुआ है। परंतु अज्ञानवश मनुष्य आत्मा को देह से अभिन्न समझ लेता है और इसी से संसार की समस्त पीड़ा उत्पन्न होती है।

शंकराचार्य आगे कहते हैं — “यतः ततः त्वं जहि ताम् प्रयत्नात्”, अर्थात हे साधक! तू इस देहात्मबुद्धि को जहाँ कहीं भी प्रकट होती दिखे, प्रयत्नपूर्वक त्याग दे। यह साधना का अत्यंत सूक्ष्म और महत्वपूर्ण बिंदु है, क्योंकि देहात्मबुद्धि केवल बौद्धिक स्तर पर नहीं, बल्कि गहराई तक हमारे चित्त में जमी हुई है। जब कोई कहता है “मैं बीमार हूँ”, “मैं बूढ़ा हो गया हूँ”, “मैं सुंदर हूँ” — तब वह वास्तव में ‘शरीर’ की विशेषताओं को ‘स्व’ पर आरोपित कर रहा होता है। यही अहंकार और अविद्या की संयुक्त क्रिया है, जो आत्मा को शरीर के साथ जोड़ देती है। विवेक का अभ्यास यही है कि हम सतत सजग रहें कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ’, ‘मैं नश्वर नहीं हूँ’, ‘मैं वह चैतन्य आत्मा हूँ जो शरीर, मन और बुद्धि को प्रकाशित करती है।’

जब साधक निरंतर आत्मविचार करता है, ‘कोऽहम्?’ — ‘मैं कौन हूँ?’ और बार-बार इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ‘मैं शरीर नहीं, मैं मन नहीं, मैं बुद्धि नहीं, मैं साक्षी चैतन्य हूँ’, तब धीरे-धीरे देहात्मबुद्धि क्षीण होती जाती है। शंकराचार्य कहते हैं, “त्यक्ते तु चित्ते न पुनर्भवाशा” — जब यह देहात्मबुद्धि चित्त से पूर्णतः मिट जाती है, तब पुनर्जन्म की कोई संभावना नहीं रहती। क्योंकि पुनर्जन्म का कारण ही यह देहाभिमान है। जब यह अभिमान नष्ट होता है, तो जीव और ब्रह्म का भेद भी मिट जाता है। तब जीव का ब्रह्म में पूर्ण विलय हो जाता है, और वही मोक्ष की अवस्था है — जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।

इस श्लोक में आत्मज्ञान की प्रक्रिया का सार समाहित है — अविद्या से देहात्मबुद्धि उत्पन्न होती है, देहात्मबुद्धि से कर्म, कर्म से पुनर्जन्म, और पुनर्जन्म से दुःख। परंतु यदि इस शृंखला को उसके मूल में ही काट दिया जाए, अर्थात देहात्मबुद्धि को ही नष्ट कर दिया जाए, तो समस्त बंधन एक साथ टूट जाते हैं। यह केवल ज्ञान से संभव है, कर्म या पूजा से नहीं। जब मनुष्य अनुभव करता है कि आत्मा सदा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है, तब वह जान जाता है कि शरीर का जन्म और मृत्यु आत्मा से संबद्ध नहीं। इस अनुभूति में ही समस्त भय, मोह और पुनर्जन्म की आशा का अंत हो जाता है। अतः शंकराचार्य का संदेश स्पष्ट है — देहात्मबुद्धि को त्यागना ही मुक्ति का द्वार है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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