Total Blog Views

Translate

रविवार, 9 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 167वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 167वां श्लोक"

"प्राणमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

कर्मेन्द्रियैः पंचभिरञ्चितोऽयं भवेत्प्राणमयस्तु कोशः ।
प्राणो येनात्मवानन्नमयोऽन्नपूर्णः प्रवर्ततेऽसौ सकलक्रियासु ॥ १६७॥

अर्थ:-पाँच कर्मेन्द्रियों से युक्त यह प्राण ही प्राणमय कोश कहलाता है, जिससे युक्त यह अन्नमय कोश अन्न से तृप्त होकर समस्त कर्मों में प्रवृत्त होता है।

यह श्लोक विवेकचूडामणि के अत्यंत गूढ़ परंतु अत्यावश्यक विषय—पाँच कोशों के विवेचन—का भाग है। यहाँ शंकराचार्य जी “प्राणमय कोश” का वर्णन करते हैं, जो जीवात्मा की आभासी संरचना में दूसरा आवरण है। श्लोक में कहा गया है—“कर्मेन्द्रियैः पंचभिरञ्चितोऽयं भवेत्प्राणमयस्तु कोशः। प्राणो येनात्मवानन्नमयोऽन्नपूर्णः प्रवर्ततेऽसौ सकलक्रियासु॥” अर्थात् पाँच कर्मेन्द्रियों से युक्त यह प्राण ही प्राणमय कोश कहलाता है। यही वह शक्ति है जिससे अन्नमय कोश, अर्थात् शरीर, अन्न से तृप्त होकर समस्त कर्मों में प्रवृत्त होता है।

मनुष्य के अस्तित्व का बाह्यतम आवरण “अन्नमय कोश” है, जो केवल अन्न से पोषित शरीर है। परंतु यह शरीर केवल पदार्थ मात्र नहीं है; इसे चलाने, गतिशील रखने और क्रियाशील बनाने वाली एक सूक्ष्म शक्ति है—वही प्राण। जब तक प्राण इस देह में विद्यमान है, तब तक शरीर चलायमान रहता है, बोलता है, देखता है, काम करता है। जैसे बिजली बिना किसी यंत्र के कोई मशीन नहीं चल सकती, वैसे ही शरीर बिना प्राण के निर्जीव है। यही कारण है कि शंकराचार्य जी कहते हैं कि “अन्नमय कोश” केवल प्राण के कारण ही क्रियाशील रहता है।

प्राणमय कोश पाँच कर्मेन्द्रियों—वाक् (वाणी), पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (त्याग), और उपस्थ (प्रजनन)—से युक्त बताया गया है। ये इन्द्रियाँ बाह्य जगत से संपर्क स्थापित करती हैं और शरीर को कर्म में प्रवृत्त करती हैं। लेकिन इनकी शक्ति और क्रियाशीलता तभी संभव होती है जब प्राण उनमें प्रवाहित होता है। प्राण ही वह अदृश्य ऊर्जा है जो जीवन को गति देती है, और यही कारण है कि इसका स्वरूप सर्वव्यापी, चेतनात्मक और सूक्ष्म कहा गया है।

“प्राणो येनात्मवानन्नमयोऽन्नपूर्णः प्रवर्ततेऽसौ सकलक्रियासु”—इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि प्राण के द्वारा ही अन्नमय कोश अपने सभी कर्म कर पाता है। भोजन (अन्न) से प्राण को शक्ति मिलती है और प्राण से शरीर सक्रिय रहता है। इस प्रकार दोनों कोश—अन्नमय और प्राणमय—परस्पर जुड़े हुए हैं। अन्न शरीर का भरण करता है, और प्राण उस शरीर को गति और जीवन प्रदान करता है। यह संबंध वैसा ही है जैसा दीपक और ज्योति का—दीपक बिना तेल के नहीं जल सकता और ज्योति बिना दीपक के ठहर नहीं सकती।

आचार्य शंकर यह बताना चाहते हैं कि मनुष्य को यह जानना चाहिए कि यह प्राणमय कोश भी आत्मा नहीं है। यह केवल एक सूक्ष्म आवरण है जो अन्नमय कोश की तुलना में अधिक सूक्ष्म होते हुए भी अभी जड़ प्रकृति का ही अंग है। जब तक साधक स्वयं को प्राणमय कोश मानता है—“मैं साँस लेता हूँ, मैं चलता हूँ, मैं बोलता हूँ”—तब तक वह आत्मस्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर सकता। आत्मा इन सब क्रियाओं की साक्षी है, किंतु इनमें सहभागी नहीं है।

इस प्रकार इस श्लोक के माध्यम से शंकराचार्य जी साधक को यह समझाना चाहते हैं कि शरीर और प्राण, दोनों ही आत्मा नहीं हैं। ये दोनों ही प्रकृति के क्षेत्र में आते हैं—एक स्थूल और दूसरा सूक्ष्म। आत्मा न शरीर है, न प्राण; वह इन दोनों का साक्षी, निरपेक्ष और सर्वव्यापक चैतन्य है। जब साधक विवेकपूर्वक इस सत्य को जान लेता है, तब वह धीरे-धीरे बाह्य और सूक्ष्म दोनों आवरणों से मुक्त होकर आत्मस्वरूप में स्थित होता है—यही आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अगला चरण है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in