"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 168वां श्लोक"
"प्राणमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
नैवात्मापि प्राणमयो वायुविकारो गन्तागन्ता वायुवदन्तर्बहिरेषः ।
यस्मात्किञ्चित्क्वापि न वेत्तीष्टमनिष्टं स्वं वान्यं वा किञ्चन नित्यं परतन्त्रः ॥ १६८ ॥
अर्थ:-प्राणमय कोश भी आत्मा नहीं है, क्योंकि यह वायु का विकार है, वायु के समान ही बाहर-भीतर जाने-आने वाला है और नित्य पर तन्त्र है। यह कभी अपना इष्ट-अनिष्ट, अपना-पराया भी कुछ नहीं जानता।
प्राणमय कोश आत्मा नहीं है, क्योंकि यह केवल वायु का ही एक विकार है। इसका अस्तित्व स्वयं में स्वतंत्र नहीं है, बल्कि यह वायु के प्रवाह के समान शरीर के भीतर और बाहर आता-जाता रहता है। जैसे बाहरी वायु अपने आप में चेतन या ज्ञानयुक्त नहीं होती, उसी प्रकार यह प्राण भी केवल जीवन-क्रियाओं को चलाने वाला एक जड़ तत्त्व है, जिसमें न तो ज्ञान का अनुभव है और न ही आत्मबोध की क्षमता। यह शरीर की क्रियाओं, जैसे श्वास-प्रश्वास, रक्तसंचार और अंगों की गति को बनाए रखता है, परंतु स्वयं यह नहीं जानता कि यह क्या कर रहा है। इसका कार्य केवल चलन और प्रवाह है, जानना या अनुभव करना नहीं। इसलिए इसे आत्मा मानना अज्ञान का परिणाम है।
शंकराचार्य यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि प्राणमय कोश भी आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मा नित्य, स्वतंत्र और सर्वज्ञानी है, जबकि प्राणमय कोश नित्य नहीं, बल्कि शरीर के साथ ही उत्पन्न और नष्ट होता है। यह भोजन से उत्पन्न हुई ऊर्जा से चलता है, और भोजन के अभाव में इसकी शक्ति समाप्त हो जाती है। जिस वस्तु का अस्तित्व भोजन पर निर्भर हो, वह ‘परतन्त्र’ कही जाती है, अर्थात् जिसका स्वयं पर कोई नियंत्रण नहीं है। आत्मा तो पूर्णतः स्वतंत्र और साक्षी स्वरूप है, जबकि यह कोश निर्भर और जड़ है। जब तक प्राण शरीर में है, शरीर चलता है; जब यह निकल जाता है, शरीर निष्प्राण हो जाता है। परंतु आत्मा न तो शरीर के साथ मरती है, न ही प्राण के साथ जाती है—वह सदा अचल, अविकारी और साक्षी है।
प्राणमय कोश के विषय में यह भी कहा गया है कि यह किसी प्रकार का ज्ञान नहीं रखता। इसे यह ज्ञात नहीं कि क्या इष्ट है और क्या अनिष्ट, न ही यह जानता है कि क्या ‘स्व’ है और क्या ‘पर’। इसका कार्य केवल शरीर की जीवन-क्रियाओं को निरंतर बनाए रखना है, जैसे एक यांत्रिक प्रणाली बिना किसी चेतना के कार्य करती रहती है। प्राण स्वयं किसी विचार, भावना या अनुभूति का अधिकारी नहीं है। जब व्यक्ति को सुख या दुःख होता है, तो अनुभव करने वाला प्राण नहीं होता, बल्कि मन और बुद्धि होती है। प्राण तो केवल उस समय मन और इन्द्रियों को ऊर्जा प्रदान करता है। अतः यह चेतन आत्मा नहीं हो सकता।
शरीर और प्राण के बीच अंतर समझना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि जब तक साधक प्राण को आत्मा समझता रहता है, तब तक वह सच्चे आत्मबोध तक नहीं पहुँच सकता। प्राण का लय हो जाने पर भी आत्मा विद्यमान रहती है। योगशास्त्र में कहा गया है कि जब प्राण नियंत्रित होता है, तब मन शांत होता है, और जब मन शांत होता है, तब आत्मा का साक्षात्कार संभव होता है। यह स्पष्ट प्रमाण है कि प्राण केवल साधन है, साध्य नहीं। आत्मा प्राण से परे, उसका साक्षी है।
वास्तव में, आत्मा का संबंध न तो श्वास से है, न ही किसी जीवन-शक्ति से। यह उन सभी के साक्षी के रूप में विद्यमान है। जब कोई व्यक्ति गहरी नींद में होता है, तब भी प्राण चलता रहता है, परंतु उस समय ‘मैं जीवित हूँ’—ऐसी कोई अनुभूति नहीं होती। इससे सिद्ध होता है कि प्राण अपने आप में अचेतन है। प्राणमय कोश का अनुभव और संचालन आत्मा के प्रकाश में ही संभव होता है, जैसे दीपक के प्रकाश में वस्तुएँ दिखती हैं, परंतु दीपक स्वयं वस्तु नहीं है।
इस प्रकार, शंकराचार्य यह सिखाते हैं कि प्राणमय कोश केवल जीवन की गति का माध्यम है, आत्मा नहीं। आत्मा तो उससे सर्वथा भिन्न, नित्य, साक्षी और स्वतंत्र सत्ता है। जो साधक इस भेद को स्पष्ट रूप से जान लेता है, वह प्राणमय कोश से भी अपनी अस्मिता का संबंध तोड़ देता है और आत्मस्वरूप की दिशा में आगे बढ़ता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!