"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 169वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
ज्ञानेन्द्रियाणि च मनश्च मनोमयः स्यात् कोशो ममाहमिति वस्तुविकल्पहेतुः ।
संज्ञादिभेदकलनाकलितो बलीयां-स्तत्पूर्वकोशमभिपूर्य विजृम्भते यः ॥ १६९ ॥
अर्थ:-ज्ञानेन्द्रियाँ और मन ही 'मैं, मेरा' आदि विकल्पों का हेतु मनोमय कोश है, जो नामादि भेद-कलनाओं से जाना जाता है और बड़ा बलवान् है, तथा पूर्व-कोशों को व्याप्त करके स्थित है।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का अत्यंत गूढ़ मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विवेचन प्रस्तुत करता है। यहाँ श्री आदि शंकराचार्य जी “मनोमय कोश” का विश्लेषण कर रहे हैं — वह सूक्ष्म आवरण जो जीव के आंतरिक अनुभव, विचार और अहंकार की जड़ में स्थित है। शंकराचार्य कहते हैं कि “ज्ञानेन्द्रियाणि च मनश्च मनोमयः स्यात् कोशः” — पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन मिलकर मनोमय कोश का निर्माण करती हैं। यह वही स्तर है जहाँ ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भेद उत्पन्न होते हैं। अन्नमय और प्राणमय कोश केवल भौतिक और प्राणिक स्तर तक सीमित थे, पर मनोमय कोश चेतना के अधिक सूक्ष्म स्तर का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें अनुभूति, संकल्प, निर्णय और द्वंद्व की क्रिया चलती है।
शंकराचार्य आगे कहते हैं कि यह मनोमय कोश “ममाहमिति वस्तुविकल्पहेतुः” है, अर्थात् यही वह कारण है जो व्यक्ति में ‘मैं कौन हूँ’, ‘यह मेरा है’, ‘यह मुझसे अलग है’ जैसे भेदभाव उत्पन्न करता है। यह द्वैत का मूल स्रोत है। जब तक मन सक्रिय है, तब तक अहंकार और भेदभाव विद्यमान रहते हैं। मन वस्तुओं को ग्रहण कर उनमें नाम-रूप की कल्पना करता है, और फिर उनमें स्वत्व की भावना जोड़ता है। यही प्रक्रिया जीव को संसार में बांधती है। इस प्रकार मनोमय कोश केवल विचारों का समूह नहीं है, बल्कि माया का सूक्ष्मतम आवरण है जो आत्मा की सर्वव्यापकता को सीमित कर “मैं” की संकुचित भावना उत्पन्न करता है।
श्लोक का अगला भाग — “संज्ञादिभेदकलनाकलितो बलीयांस्तत्पूर्वकोशमभिपूर्य विजृम्भते यः” — यह दर्शाता है कि यह मनोमय कोश अत्यंत शक्तिशाली है। यह नाम, संज्ञा, भेद और कल्पना के माध्यम से संसार की विविधता की रचना करता है। इस मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि यह पूर्ववर्ती कोशों — अन्नमय और प्राणमय — को भी संचालित करता है। मन ही शरीर और प्राणों को गति देता है। शरीर की सभी क्रियाएँ, प्राण की सभी गतियाँ, अंततः मन के संकल्पों पर निर्भर होती हैं। इसीलिए इसे “बलीयान्” कहा गया है — यह सूक्ष्म होते हुए भी अत्यंत प्रभावशाली है।
यह मनोमय कोश चेतना का वह स्तर है जहाँ से व्यक्ति की व्यक्तित्व-यात्रा प्रारंभ होती है। जब तक यह सक्रिय है, तब तक संसार, भोग, दुःख और सुख के अनुभव होते हैं। परंतु जब साधक विवेकपूर्वक इसका निरीक्षण करता है, तो उसे ज्ञात होता है कि यह भी आत्मा नहीं है, क्योंकि यह परिवर्तनशील और विषयाधीन है। मन कभी शांत होता है, कभी व्याकुल, कभी प्रसन्न, कभी दुःखी — यह उसके अस्थिर स्वरूप का प्रमाण है। जो बदलता है वह आत्मा नहीं हो सकता। आत्मा तो साक्षी मात्र है, जो मन के उतार-चढ़ाव को देखता है, पर उनसे प्रभावित नहीं होता।
अतः साधक के लिए यह समझना आवश्यक है कि मनोमय कोश आत्मा का नहीं, बल्कि उसकी आवरण-श्रृंखला का एक अंग है। इसका उपयोग साधना में किया जा सकता है, पर इसके साथ आत्मबुद्धि करना अज्ञान है। जब मन का नियंत्रण, शुद्धिकरण और अंततः उसका लय साधक के अनुभव में आता है, तभी वह आत्मा के और निकट पहुँचता है। इस प्रकार यह श्लोक साधक को चेतावनी देता है कि मनोमय कोश अत्यंत सूक्ष्म और शक्तिशाली बंधन है — इसे विवेक और ध्यान के द्वारा पार करना ही आत्म-साक्षात्कार की दिशा में एक महत्वपूर्ण चरण है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!