"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 170वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
पञ्चेन्द्रियैः पञ्चभिरेव होतृभिः प्रचीयमानो विषयाज्यधारया।
जाज्वल्यमानो बहुवासनेन्धनै-र्मनोमयाग्निर्दहति प्रपंचम् ॥ १७० ॥
अर्थ:-पंचेन्द्रिय रूप पाँच होताओंद्वारा विषय रूपी घृत की आहुतियों से बढ़ाया हुआ तथा नाना प्रकार की वासना रूप ईंधन से प्रज्वलित हुआ यह मनोमय अग्नि (यज्ञ) सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच को दग्ध कर देता है। अर्थात् जिस समय इन्द्रियाँ वासना रूपी ईंधन को जला कर प्रकट किये मनोमय अग्नि में विषयों को हवन कर देती हैं उस समय यह सम्पूर्ण प्रपंच लीन हो जाता है।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्य मनोमय कोश के कार्य और उसकी प्रकृति को अत्यंत सूक्ष्म रूप से समझाते हैं। यहाँ मन को एक यज्ञ की अग्नि के समान बताया गया है, जो पंच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा निरंतर प्रज्वलित होती रहती है। पाँच इन्द्रियाँ — श्रवण, स्पर्शन, दृष्टि, रसना और घ्राण — ये पाँच होते हैं, जिन्हें शंकराचार्य ने “होता” कहा है। ये पाँच होते विषय रूपी घृत की आहुति मन रूपी अग्नि में डालते रहते हैं। जब यह मन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों को ग्रहण करता है, तब वह विषयों से प्राप्त सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि अनुभवों से प्रज्वलित हो उठता है। इस प्रकार विषयों की निरंतर धाराओं से पोषित होकर यह मनोमय अग्नि अधिक प्रबल होती जाती है।
यह अग्नि केवल इन्द्रियों द्वारा डाले गए विषय-घृत से ही नहीं, बल्कि भीतर संचित वासनाओं के ईंधन से भी और अधिक प्रज्वलित होती है। वासनाएँ ही इस अग्नि की जड़ में छिपा हुआ मूल कारण हैं। जब तक मनुष्य में वासना है — किसी वस्तु को पाने, भोगने या अनुभव करने की इच्छा है — तब तक यह अग्नि शांत नहीं होती। विषयों का संपर्क इस अग्नि को और अधिक भड़काता है, और यह सम्पूर्ण प्रपंच को अपनी लपटों में ले लेती है। यहाँ “प्रपंच” शब्द का अर्थ है यह सम्पूर्ण दृश्य जगत, जो मन द्वारा ही अनुभव किया जाता है। मन के माध्यम से ही संसार का निर्माण और उसका अनुभव संभव है। जब मन विषयों में लिप्त होता है, तब वह संसार को सत्य मानता है; और जब यह मन शांत होता है, तब संसार की वास्तविकता मिट जाती है।
शंकराचार्य का तात्पर्य यह है कि मन ही वह माध्यम है जिसके द्वारा हम इस जगत को देखते, समझते और अनुभव करते हैं। जैसे अग्नि अपने सामने रखी हर वस्तु को भस्म कर देती है, वैसे ही यह मन भी जब विषयों की ओर प्रवृत्त होता है, तो समस्त दृश्य-प्रपंच में राग-द्वेष, सुख-दुःख, मोह-माया का जाल फैला देता है। लेकिन जब यही मन विवेक और वैराग्य से शुद्ध होकर अंतर्मुख होता है, तब यह अपने ही प्रपंच को दग्ध कर देता है — अर्थात् संसार का मायिक स्वरूप प्रकट हो जाता है और केवल चैतन्य, शुद्ध आत्मा ही शेष रह जाती है।
यहाँ “दहति प्रपंचम्” का अर्थ बाह्य जगत का नाश नहीं, बल्कि उसके मायिक होने का ज्ञान है। जब मन शांत होता है, वासनाएँ समाप्त होती हैं और इन्द्रियाँ विषयों से विरक्त हो जाती हैं, तब यह मनोमय अग्नि आत्मबोध में विलीन हो जाती है। उस अवस्था में जगत का अनुभव तो रहता है, पर उसकी वास्तविकता समाप्त हो जाती है। यह स्थिति ज्ञानयोगी की है — जो यह जान लेता है कि यह समस्त प्रपंच केवल मन द्वारा उत्पन्न एक दृश्य मात्र है, और आत्मा इन सबसे परे है।
इस प्रकार, इस श्लोक में शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि मन ही संसार का निर्माता और भस्म करने वाला है। वासनाओं और विषयों के मेल से उत्पन्न यह मनोमय अग्नि ही जीव को संसार में बाँधती है। जब यह अग्नि अंतर्मुख होकर आत्मज्ञान में रूपांतरित होती है, तब वही मन मुक्ति का साधन बन जाता है। इसीलिए, साधक को चाहिए कि वह इन्द्रियों को नियंत्रित कर मन को शांत बनाए और वासनाओं के ईंधन को समाप्त कर आत्मस्वरूप में स्थित हो जाए — वहीं से मोक्ष का वास्तविक आरंभ होता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!