"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 171वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
न ह्यस्त्यविद्या मनसोऽतिरिक्ता मनो ह्यविद्या भवबन्धहेतुः ।
तस्मिन्विनष्टे सकलं विनष्टं विजृम्भितेऽस्मिन्सकलं विजृम्भते ॥ १७१ ॥
अर्थ:-मन से अतिरिक्त अविद्या और कुछ नहीं है, मन ही भवबन्धन की हेतुभूता अविद्या है। उसके नष्ट होने पर सब नष्ट हो जाता है और उसीके जागृत होने पर सब कुछ प्रतीत होने लगता है।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अत्यंत गूढ़ सिद्धांत को स्पष्ट करता है—कि अविद्या (अज्ञान) मन से भिन्न कोई सत्ता नहीं है। मन ही वास्तव में वह माध्यम है जिससे संसार का अनुभव होता है, और वही अनुभव bondage (भव-बन्धन) का कारण बनता है। जब मन शांत या नष्ट हो जाता है, तब समस्त द्वैत का अनुभव मिट जाता है, और जब मन जागृत होता है, तब यह सम्पूर्ण जगत, सुख-दुःख, राग-द्वेष, अहंता-ममता सब उसीके साथ प्रकट होते हैं। शंकराचार्य यहाँ यह दर्शाना चाहते हैं कि संसार की वास्तविकता मन पर ही आश्रित है — मन का उदय होता है तो जगत का उदय होता है, मन का लय होता है तो जगत का लय हो जाता है।
‘न ह्यस्त्यविद्या मनसोऽतिरिक्ता’ — इस पंक्ति में कहा गया है कि अविद्या कोई बाहरी शक्ति नहीं है जो कहीं बाहर से आकर मनुष्य को बांध देती हो। अविद्या स्वयं मन का ही स्वरूप है। जब तक मन है, तब तक अज्ञान है, और जब मन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है (अर्थात् उसका लय ब्रह्म में होता है), तब अविद्या का भी अंत हो जाता है। यही कारण है कि ज्ञान प्राप्ति का अर्थ केवल बौद्धिक जानकारी प्राप्त कर लेना नहीं है, बल्कि मन का पूर्ण रूप से शुद्ध होकर निस्तब्ध हो जाना है। क्योंकि जब मन नहीं रहता, तब ‘कर्ता’ और ‘भोक्ता’ का भाव भी समाप्त हो जाता है।
‘मनो ह्यविद्या भवबन्धहेतुः’ — मन ही संसार बन्धन का कारण है। यही मन इच्छाएँ उत्पन्न करता है, कर्मों को प्रेरित करता है, फल की आकांक्षा करता है, और उसी फल के कारण पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस जाता है। इसलिए वेदांत कहता है कि मन को जानो, क्योंकि मन ही बन्धन का मूल है। भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण ने कहा है — “उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्”, अर्थात् मनुष्य अपने मन द्वारा ही अपने को ऊपर उठा सकता है या गिरा सकता है। अतः मन यदि अविद्या के अधीन है तो वह बन्धन का साधन बनता है, और यदि ज्ञान द्वारा प्रकाशित हो जाए तो वही मुक्ति का द्वार बन जाता है।
‘तस्मिन्विनष्टे सकलं विनष्टं’ — जब मन का लय होता है, तब सब कुछ समाप्त हो जाता है। यह समाप्ति बाह्य वस्तुओं की नहीं, बल्कि उनके अनुभव की है। जैसे गहरी नींद में न तो जगत का अनुभव रहता है, न सुख-दुःख का, न अहंकार का, वैसे ही जब साधक ध्यान और विवेक द्वारा मन को पूर्ण रूप से शांत कर देता है, तब वह ब्रह्मरूप शुद्ध चैतन्य में स्थित हो जाता है जहाँ द्वैत का कोई अस्तित्व नहीं रहता।
‘विजृम्भितेऽस्मिन्सकलं विजृम्भते’ — जब मन पुनः उदित होता है, तब वही संसार पुनः दिखाई देने लगता है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे स्वप्न की स्थिति में मन कल्पना से एक सम्पूर्ण जगत रच देता है, और जाग्रत होते ही वह मिट जाता है। वस्तुतः यह जगत भी उसी स्वप्न के समान मन के उदय पर ही प्रकट होता है।
अतः इस श्लोक का सार यह है कि मन ही अज्ञान का मूल है, और उसी के नष्ट होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। ज्ञान का अर्थ है मन की निश्चलता — जहाँ विचारों का प्रवाह रुक जाए और केवल आत्मा का साक्षात् अनुभव हो। तब साधक अनुभव करता है — “अहं ब्रह्मास्मि” — मैं वही शुद्ध, अनंत, चैतन्य ब्रह्म हूँ, जिसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!