"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 172वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
स्वप्नेऽर्थशून्ये सृजति स्वशक्त्या भोक्त्रादि विश्वं मन एव सर्वम् ।
तथैव जाग्रत्यपि नो विशेष-स्तत्सर्वमेतन्मनसो विजृम्भणम् ॥ १७२ ॥
अर्थ:-जिसमें कोई पदार्थ नहीं होता उस स्वप्न में मन ही अपनी शक्ति से सम्पूर्ण भोक्ता-भोग्यादि प्रपंच रचता है, उसी प्रकार जागृति में भी और कोई विशेषता नहीं है, अतः यह सब मन का विलास मात्र ही है।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्य यह सूक्ष्म और गहन सत्य प्रकट करते हैं कि सम्पूर्ण जगत—चाहे वह स्वप्न का हो या जागृति का—मन का ही सृजन है। जब मन अपनी कल्पनाशक्ति के द्वारा स्वप्न अवस्था में अनेक दृश्य, पात्र, परिस्थितियाँ और अनुभव रचता है, तब वास्तव में वहाँ कुछ भी बाह्य रूप में विद्यमान नहीं होता। फिर भी स्वप्न में देखने वाला (भोक्ता), देखे जाने वाले दृश्य (भोग्य), और अनुभव करने की क्रिया—तीनों ही वास्तविक प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए, स्वप्न में व्यक्ति पर्वतों पर चढ़ता है, नदियों में तैरता है, सुख-दुःख का अनुभव करता है; परन्तु जागने पर ज्ञात होता है कि यह सब मात्र मन की रचना थी—न कोई पर्वत था, न नदी, न अनुभव का बाह्य कारण।
शंकराचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार स्वप्न में मन अपनी ही शक्ति से सम्पूर्ण विश्व का निर्माण करता है, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी मन ही इस भौतिक जगत का अनुभव कराता है। अंतर केवल इतना है कि स्वप्न का अनुभव अत्यल्प काल के लिए होता है और उसका विलय शीघ्र हो जाता है, जबकि जागृति का अनुभव अधिक स्थायी प्रतीत होता है, इसलिए उसे हम ‘सत्य’ मान लेते हैं। परन्तु दोनों का आधार समान है—मन। मन ही संकल्प-विकल्प से विश्व को अनुभव कराने वाला है। मन के प्रकट होने से ही यह जगत प्रकट होता है, और मन के लीन होने पर यह जगत भी लीन हो जाता है।
वेदांत का मर्म यही है कि मन के पार जो शुद्ध चैतन्य है, वही वास्तविक आत्मा है। जब तक मन सक्रिय है, तब तक वह नाम-रूप के माध्यम से जगत की रचना करता रहता है। परंतु जब मन शान्त होता है, जब विचार-तरंगाएँ थम जाती हैं, तब केवल अद्वैत ब्रह्म की अनुभूति शेष रह जाती है, जिसमें न स्वप्न है, न जाग्रत, न सृष्टि, न भोग। इसीलिए कहा गया कि "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः"—मनुष्य के बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण यही मन है। जब मन विषयों की ओर जाता है तो बन्धन उत्पन्न होता है, और जब मन भीतर आत्मा की ओर मुड़ता है तो मोक्ष का अनुभव होता है।
शंकराचार्य इस श्लोक के माध्यम से हमें यह समझाना चाहते हैं कि हम जिस संसार को जागृति में इतना ठोस और सत्य मानते हैं, वह भी उसी प्रकार मिथ्या है जैसे स्वप्न। केवल दृष्टिकोण का अंतर है। जब तक मन इस प्रपंच में रमता है, तब तक यह वास्तविक लगता है; पर जब विवेक से देखा जाए तो ज्ञात होता है कि यह सब मन का ही विकार है, उसकी कल्पना मात्र है। स्वप्न और जागरण दोनों में आत्मा साक्षी रूप में एक समान उपस्थित रहती है—न वह किसी अवस्था में बदलती है, न प्रभावित होती है। मन जब शांत होता है, तब वही साक्षी चैतन्य अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट होता है।
इस प्रकार यह श्लोक साधक को यह बोध कराता है कि जगत के सत्यत्व का दावा केवल मन की प्रवृत्तियों तक सीमित है। जब मन का उदय होता है तो विश्व का उदय होता है, और जब मन का विलय होता है तो विश्व का भी लय हो जाता है। जाग्रत और स्वप्न दोनों मन के खेल हैं, और आत्मा उनसे सर्वथा भिन्न, निरपेक्ष और नित्यमुक्त है। यही बोध मोक्ष की दिशा में पहला कदम है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!