Total Blog Views

Translate

रविवार, 16 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 173वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 173वां श्लोक"

"मनोमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

सुषुप्तिकाले मनसि प्रलीने नैवास्ति किञ्चित्सकलप्रसिद्धेः ।

अतो मनःकल्पित एव पुंसः संसार एतस्य न वस्तुतोऽस्ति ॥ १७३ ॥

अर्थ:-सुषुप्ति-काल में मन के लीन हो जाने पर कुछ भी नहीं रहता- यह बात सबको विदित ही है। अतः इस पुरुष (जीव) का यह संसार-मन की कल्पना मात्र ही है, वस्तुतः नहीं।

विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आदि शंकराचार्य मन की मायिक शक्ति और संसार की असत्यता को अत्यंत सूक्ष्म दृष्टि से स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि जब सुषुप्ति अर्थात गहरी नींद की अवस्था आती है, तब मन पूर्णतः लीन हो जाता है। उस समय न हमें यह देह का बोध रहता है, न जगत का, न सुख-दुःख का, न किसी भी प्रकार की इच्छा या भय का। यह अनुभव प्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन होता है, इसलिए इसे “सकलप्रसिद्ध” कहा गया है—सबके लिए प्रसिद्ध और प्रत्यक्ष सत्य। इस अवस्था में कोई वस्तु अनुभव में नहीं आती क्योंकि मन ही अनुभव का माध्यम है, और जब वह लीन हो जाता है, तब अनुभव की पूरी प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।

यह साधारण अनुभव ही यह प्रमाणित करता है कि संसार वस्तुतः मन की ही कल्पना है। जब मन सक्रिय होता है, तब हम इस जगत को देखते, सुनते, सोचते और अनुभव करते हैं। जाग्रत अवस्था में मन बाह्य विषयों के साथ जुड़कर “यह संसार है, मैं इसमें जी रहा हूँ” जैसी धारणा बनाता है। स्वप्न में यही मन अपनी ही शक्ति से एक नया संसार रच देता है—वहां भी देखनेवाले, देखे जानेवाले और देखने की क्रिया तीनों उसी से उत्पन्न होते हैं। किंतु जैसे ही सुषुप्ति में मन का लय होता है, वैसे ही यह सारा अनुभवजन्य जगत लुप्त हो जाता है। यदि यह संसार वस्तुतः स्वतंत्र रूप से सत्य होता, तो मन के लीन होने पर भी उसका अनुभव बना रहना चाहिए था, परंतु ऐसा नहीं होता। इसलिए यह निष्कर्ष निकाला गया कि संसार केवल मन की कल्पना मात्र है।

यहाँ शंकराचार्य का उद्देश्य यह बताना है कि संसार की वास्तविकता मन की कल्पना पर निर्भर है, और जब मन का नाश होता है, तब संसार का भी लय होता है। इस प्रकार संसार कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है—यह मन के उदय और लय के साथ प्रकट और अप्रकट होता रहता है। यही कारण है कि वे कहते हैं, “अतो मनःकल्पित एव पुंसः संसारः”—अर्थात यह जीव का संसार मन द्वारा ही कल्पित है। वस्तुतः आत्मा शुद्ध, अचल, साक्षीस्वरूप है; वह कभी बंधता नहीं, केवल मन की वृत्तियों से बंधन और मोक्ष की कल्पना उत्पन्न होती है।

इस श्लोक से साधक के लिए यह गहन शिक्षण है कि जब तक मन पर नियंत्रण नहीं होता, तब तक संसार के भ्रम से मुक्ति नहीं मिल सकती। मन की शांति ही मोक्ष का द्वार है। जिस प्रकार सुषुप्ति में मन के लीन होते ही सब द्वैत लुप्त हो जाता है और आत्मा अपने स्वरूप में स्थित रहती है, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी यदि साधक मन को वासनाओं और विचारों से रहित कर दे, तो वह शुद्ध आत्मस्वरूप का अनुभव कर सकता है। इसलिए वेदान्त का साधन यही है कि मन की कल्पना-शक्ति को समझकर उससे परे स्थित होना—क्योंकि मन से ही संसार की कल्पना है, और उसके पार ही परम शांति और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in