Total Blog Views

Translate

सोमवार, 17 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 174वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 174वां श्लोक"

"मनोमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

वायुनानीयते मेघः पुनस्तेनैव नीयते। मनसा कल्प्यते बन्धो मोक्षस्तेनैव कल्प्यते ॥ १७४ ॥

अर्थ:-मेघ वायु के द्वारा आता है और फिर उसी के द्वारा चला जाता है, इसी प्रकार मन से ही बन्धन की कल्पना होती है और उसी से मोक्ष की।

विवेकचूडामणि के इस गूढ़ श्लोक में आचार्य शंकराचार्य ने अत्यंत सूक्ष्म और गहन सत्य को प्रकट किया है। वे बताते हैं कि जैसे आकाश में बादल स्वयं से नहीं आते, उन्हें वायु लाती है; और जब समय आता है, तो वही वायु उन्हें हटा भी देती है। बादलों का आना-जाना आकाश पर कोई वास्तविक प्रभाव नहीं डालता, क्योंकि आकाश सदा निर्मल, अचल और निरपेक्ष रहता है। इसी प्रकार जीव के अनुभव में जो बन्धन और मोक्ष का विचार आता है, वह भी केवल मन की कल्पना मात्र है। मन ही बन्धन की रचना करता है, और वही मन जब ज्ञान से शुद्ध होता है, तो मोक्ष की अनुभूति भी उसी के द्वारा होती है।

मनुष्य का मन ही संसार का सर्जक है। जब मन वासनाओं, इच्छाओं, राग-द्वेष और अहंता-ममता से भरा होता है, तब वही मन संसार का निर्माण करता है। मन विषयों में आसक्त होकर ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना से बन्ध जाता है। यही बन्धन कहलाता है। पर जब यही मन विवेक और वैराग्य से शुद्ध होकर आत्मा में स्थिर होता है, तो वही मन ‘मैं’ और ‘मेरा’ की सीमाओं को लांघकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है, और यही अवस्था मोक्ष है। अतः बन्धन और मोक्ष दोनों का आधार एक ही मन है, जैसे वायु ही मेघ को लाती और ले जाती है।

आचार्य शंकर यह नहीं कहते कि वास्तव में कोई बन्धन या मोक्ष है। वे कहते हैं कि यह सब मन की दृष्टि में ही है। जब मन नहीं होता, तब न संसार होता है, न बन्धन, न मोक्ष। सुषुप्ति अवस्था इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है—गहरी नींद में मन लीन होता है, तब कोई दुःख, कोई जगत, कोई बन्धन अनुभव नहीं होता। पर जाग्रति होते ही मन पुनः सक्रिय होता है और संसार का अनुभव आरम्भ हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि मन ही वह माध्यम है जिससे बन्धन का अनुभव होता है, और जब यही मन शांत व समाधिस्थ होता है, तब मोक्ष का अनुभव होता है।

यह श्लोक साधक को यह समझाता है कि वास्तविकता में आत्मा न कभी बँधी, न कभी मुक्त हुई। बन्धन और मोक्ष दोनों मन की कल्पना हैं। आत्मा तो सदा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और नित्य है। जैसे आकाश में बादल आने से आकाश मलिन नहीं होता, उसी प्रकार मन में उठने वाले विचारों, वासनाओं और कल्पनाओं से आत्मा प्रभावित नहीं होती। आकाश के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता; वह सदा विशाल, अचल और निराकार रहता है। उसी प्रकार आत्मा भी अपने स्वरूप में सदा एकरस और निरुपाधिक है।

साधक को चाहिए कि वह अपने मन के स्वरूप को समझे और उसे नियंत्रित करे। जब मन वासनारहित होता है, तब वह आत्मा का दर्पण बन जाता है। ज्ञान रूपी वायु जब उठती है, तब वह अज्ञान रूपी मेघों को दूर कर देती है और आत्मा का निर्मल स्वरूप प्रकाशित हो जाता है। परंतु जब तक मन में वासनाओं और संकल्पों का झंझावात चलता रहता है, तब तक आत्मा का प्रकाश छिपा रहता है। अतः मोक्ष प्राप्ति का मार्ग मन के शुद्धिकरण से होकर जाता है।

इस प्रकार शंकराचार्य यह शिक्षा देते हैं कि संसार, बन्धन और मोक्ष – ये सब बाहरी नहीं, बल्कि मन की स्थिति पर निर्भर हैं। जब मन अज्ञान से प्रेरित होता है, तो संसार अनुभव में आता है; और जब मन ज्ञान से प्रकाशित होता है, तो वही मोक्ष का अनुभव होता है। जैसे वायु से आए मेघ वायु से ही चले जाते हैं, वैसे ही मन से उत्पन्न बन्धन मन की शुद्धि से ही नष्ट हो जाता है। यही आत्मबोध की अंतिम सच्चाई है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in