"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 175वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
देहादिसर्वविषये परिकल्प्य रागं बध्नाति तेन पुरुषं पशुवद्गुणेन । वैरस्यमत्र विषवत्सु विधाय पश्चा-देनं विमोचयति तन्मन एव बन्धात् ॥ १७५ ॥
अर्थ:-यह मन ही देह आदि सब विषयों में राग की कल्पना करके उसके द्वारा रस्सी से पशु की भाँति पुरुष को बाँधता है और फिर इन विषवत् विषयों में विरसता उत्पन्न करके इसको बन्धन से मुक्त कर देता है।
यह श्लोक मन की अत्यन्त सूक्ष्म और रहस्यमय शक्ति का परिचय देता है। शंकराचार्य यहाँ बताते हैं कि मन ही बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण है। यह देह, इन्द्रिय, वस्तु, व्यक्ति, सम्बन्ध और संसार के समस्त विषयों में आसक्ति की कल्पना करता है और फिर उसी राग के माध्यम से जीव को बाँध देता है। जैसे कोई पशु रस्सी से बाँध दिया जाता है और वह बन्धन के कारण स्वतंत्र नहीं रह पाता, वैसे ही मनुष्य भी अपने ही मन के राग-द्वेष, मोह, और इच्छा के जाल में बँधकर संसार-चक्र में घूमता रहता है। इस राग का मूल कारण अविद्या है—अज्ञान जो आत्मा को देह, मन, या इन्द्रियों के साथ अभिन्न मानता है। जब तक यह भ्रान्ति बनी रहती है, मनुष्य विषय-सुख में लिप्त रहता है और उन्हें ही जीवन का परम लक्ष्य समझ बैठता है।
परंतु यही मन जब विवेक के प्रकाश में आता है, जब साधक अपने आत्मस्वरूप पर विचार करता है, तब वही मन वैराग्य की ओर मुड़ता है। विषय, जो पहले मधुर और आकर्षक प्रतीत होते थे, अब विष के समान प्रतीत होने लगते हैं। पहले जिन वस्तुओं में आनंद खोजा जाता था, अब उन्हीं में दुःख और बन्धन का कारण देखा जाता है। इस परिवर्तन का नाम वैराग्य है। यह कोई बाहरी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि मन की दिशा-परिवर्तन की प्रक्रिया है। मन पहले बाहर की ओर दौड़ता था—विषयों, इच्छाओं और परिणामों की ओर; अब वह भीतर की ओर मुड़ता है—आत्मा की ओर, शाश्वत शांति की ओर।
यहाँ एक गहन सत्य छिपा है कि बन्धन मन से ही है, बाहरी वस्तुओं से नहीं। विषय वस्तुतः न तो बन्धन करते हैं, न मोक्ष देते हैं; वे केवल मन के लिए प्रेरक माध्यम बनते हैं। जब मन किसी वस्तु में राग करता है तो बन्धन उत्पन्न होता है, और जब वही मन उसी वस्तु में वैराग्य उत्पन्न करता है तो मुक्ति का मार्ग खुलता है। यही कारण है कि वेदान्त में मन को ‘मूल कारण’ कहा गया है—“मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।” यह मन ही है जो विचार के स्तर पर बन्धन रचता है और विचार के स्तर पर ही मुक्ति का अनुभव कराता है।
साधक के जीवन में यह श्लोक अत्यन्त व्यावहारिक महत्व रखता है। जब तक मन विषयों के प्रति आकर्षण से भरा रहेगा, तब तक साधना सतही रहेगी। लेकिन जब मन वैराग्य को अपनाता है और विषयों की क्षणभंगुरता को समझता है, तब धीरे-धीरे उसकी गति आत्मा की ओर होती है। यह वही क्षण है जब मन बन्धन से मुक्त होकर साधक को स्वतन्त्रता का अनुभव कराता है। इस प्रकार मन स्वयं बन्धन का निर्माता है और स्वयं ही मुक्ति का द्वार खोलता है। जैसे रस्सी से बँधा पशु जब उसी रस्सी को काट देता है तो स्वतन्त्र हो जाता है, वैसे ही मन भी जब अपनी आसक्तियों को त्याग देता है तो आत्मा की अनन्त स्वतंत्रता का अनुभव करता है। अतः ज्ञानी पुरुष जानता है कि संसार से भागने की नहीं, बल्कि मन की दिशा को बदलने की आवश्यकता है—राग से वैराग्य की ओर, बाह्य से आन्तरिक की ओर, असत् से सत् की ओर। यही सच्चा मोक्ष है, यही आत्म-साक्षात्कार की दिशा में पहला कदम है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!