"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 176वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
तस्मान्मनः कारणमस्य जन्तो-
र्बन्धस्य मोक्षस्य च वा विधाने।
बन्धस्य हेतुर्मलिनं रजोगुणै-र्मोक्षस्य शुद्धं विरजस्तमस्कम् ॥ १७६ ॥
अर्थ:-इसलिये इस जीव के बन्धन और मोक्ष के विधान में मन ही कारण है, रजोगुण से मलिन हुआ यह बन्धन का हेतु होता है तथा रज-तम से रहित शुद्ध सात्त्विक होने पर मोक्ष का कारण होता है।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्य जी मन की महत्ता और उसकी द्वैत भूमिका का अत्यंत गूढ़ विवेचन करते हैं। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जीव के बन्धन और मोक्ष — दोनों का मूल कारण मन ही है। संसार के बन्धनों में फँसाने वाला भी यही मन है और मुक्ति के द्वार तक पहुँचाने वाला भी यही। यह मन ही है जो रजोगुण और तमोगुण से आवृत होकर अज्ञान, आसक्ति और अहंकार के जाल में जीव को बाँध देता है। जब यही मन रज-तम से मुक्त होकर शुद्ध, सात्त्विक और स्थिर हो जाता है, तब वही मोक्ष का साधन बन जाता है। इस प्रकार मन की स्थिति के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बन्धनमय या मुक्तिमय होता है।
मन की प्रवृत्ति स्वभावतः बाहर की ओर होती है। रजोगुण के प्रभाव से यह चंचल, कर्मशील और विषय-भोग में लिप्त रहता है। रजोगुण मन में कामना, क्रोध, लोभ और स्पर्धा जैसे भाव उत्पन्न करता है, जिससे जीव निरंतर अशांति और असंतोष का अनुभव करता है। इसी स्थिति में मनुष्य कर्म और उनके फलों के बन्धन में फँसता जाता है। जब मन तमोगुण से प्रभावित होता है, तब उसमें जड़ता, आलस्य और मोह उत्पन्न होते हैं, जो विवेक को नष्ट कर देते हैं। परिणामस्वरूप जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर देह, मन और इन्द्रियों को ही आत्मा मानने लगता है। यही अज्ञान बन्धन का कारण बनता है। इस प्रकार जब तक मन रजस और तमस से कलुषित है, तब तक वह अविद्या का पोषक बना रहता है और जीव को संसार में बाँधे रखता है।
परंतु जब साधक विवेक, वैराग्य और शमादि षट्सम्पत्ति के अभ्यास से अपने मन को शुद्ध करता है, तब उसमें सात्त्विकता प्रबल होने लगती है। सात्त्विक मन शांत, स्थिर और प्रसन्न होता है। उसमें कामना, द्वेष या लोभ जैसी वृत्तियाँ नहीं रहतीं। ऐसा मन अंतर्मुखी होकर आत्मचिन्तन करता है और धीरे-धीरे विषयासक्ति से मुक्त होकर आत्मा के स्वरूप में स्थित हो जाता है। शंकराचार्य जी कहते हैं कि यही शुद्ध मन मोक्ष का साधन है, क्योंकि जब मन सात्त्विक होकर रज-तम से रहित हो जाता है, तब वह आत्मा में विलीन हो जाता है। मन का लय ही वास्तविक मुक्ति है।
वास्तव में मन स्वयं में कोई बन्धनकारी शक्ति नहीं है; वह केवल साधन है। परंतु उसकी दिशा के अनुसार परिणाम भिन्न होते हैं। यदि वह विषयों की ओर प्रवृत्त है तो बन्धन का कारण बनता है, और यदि आत्मा की ओर प्रवृत्त है तो मुक्ति का द्वार खोल देता है। जैसे एक ही चाकू से कोई सब्जी काट सकता है या किसी को चोट पहुँचा सकता है, वैसे ही मन भी उपयोग के अनुसार या तो संसार में बाँधता है या परमात्मा से जोड़ता है। अतः मन को दोष देना उचित नहीं; उसकी शुद्धि ही सच्चा साधन है।
अतः साधक का प्रयत्न यही होना चाहिए कि वह मन को रजस-तमस से मुक्त कर सात्त्विक बनाये। सत्संग, स्वाध्याय, ध्यान और आत्मविचार जैसे साधनों से मन का परिष्कार किया जा सकता है। जब मन पूर्ण रूप से निर्मल हो जाता है, तब वह आत्मा के प्रकाश को प्रतिबिंबित करने लगता है। तब जीव अनुभव करता है कि वह स्वयं कभी बन्धन में था ही नहीं — वह तो सदा से मुक्त, शुद्ध, चैतन्य स्वरूप आत्मा है। इस प्रकार मन का शुद्ध होना ही मोक्ष का आरम्भ है और उसका लय होना ही मोक्ष की परिपूर्णता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!