"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 177वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विवेकवैराग्यगुणातिरेका-च्छुद्धत्वमासाद्य मनो विमुक्त्यै।
भवत्यतो बुद्धिमतो मुमुक्षो-स्ताभ्यां दृढाभ्यां भवितव्यमग्रे ॥ १७७ ॥
अर्थ:-विवेक-वैराग्यादि गुणों के उत्कर्ष से शुद्धता को प्राप्त हुआ मन मुक्ति का हेतु होता है, अतः पहले बुद्धिमान् मुमुक्षु के वे (ज्ञान-वैराग्य) दोनों ही दृढ़ होने चाहिये।
इस श्लोक में श्री शंकराचार्य जी ने स्पष्ट किया है कि मुक्ति के लिए मन का शुद्ध होना अनिवार्य है, और उस शुद्धता का मूल कारण विवेक तथा वैराग्य जैसे गुण हैं। जब मन इन गुणों से सम्पन्न होता है, तब वह बन्धन से मुक्त होकर आत्मस्वरूप की अनुभूति का पात्र बन जाता है। श्लोक का भावार्थ यह है कि विवेक—अर्थात् नित्य और अनित्य का भेद जानने की शक्ति—और वैराग्य—अर्थात् विषय-सुखों में अनासक्ति—इन दोनों गुणों की दृढ़ स्थापना से मन शुद्ध होकर मुक्तिप्रद हो जाता है। इसीलिए आचार्य कहते हैं कि जो बुद्धिमान मुमुक्षु है, उसे इन दोनों गुणों को पहले दृढ़ करना आवश्यक है, तभी आगे की साधना सार्थक होगी।
विवेक मनुष्य को सत्य और असत्य, वास्तविक और अवास्तविक के बीच भेद करने में समर्थ बनाता है। यह विवेक ही उसे यह समझने में सहायता देता है कि संसार की समस्त वस्तुएँ, सुख और संबंध नश्वर हैं, और केवल आत्मा ही नित्य, शुद्ध और अमर है। जब यह समझ पक्की हो जाती है, तब वैराग्य सहज रूप से उत्पन्न होता है। वैराग्य का अर्थ संसार का त्याग करना नहीं, बल्कि उसके प्रति मोह का क्षय होना है। जब साधक यह जान लेता है कि विषय-सुख क्षणिक हैं और दुख का कारण बनते हैं, तब उसका मन उनसे स्वाभाविक रूप से हट जाता है। यही वैराग्य मन को स्थिरता और अंतःशांति प्रदान करता है।
शंकराचार्य जी यहाँ यह भी संकेत करते हैं कि मन तभी मुक्ति के योग्य बनता है जब उसमें शुद्धता आती है। अशुद्ध मन काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से ढका होता है। ऐसे मन में आत्मज्ञान का प्रकाश नहीं हो सकता। जैसे गंदे दर्पण में चेहरा साफ़ दिखाई नहीं देता, वैसे ही मलिन मन में आत्मा का तेज़ प्रतिबिंबित नहीं होता। विवेक और वैराग्य से मन के इन दोषों का नाश होता है। विवेक अज्ञान को हटाता है, और वैराग्य वासनाओं को शान्त करता है। जब दोनों मिलकर कार्य करते हैं, तब मन निर्मल होकर आत्मा के प्रकाश को प्रतिबिंबित करने योग्य बनता है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि विवेक और वैराग्य अस्थायी नहीं, दृढ़ होने चाहिए। जब तक ये गुण दृढ़ नहीं होते, तब तक साधक का मन पुनः संसार की ओर लौट आता है। प्रारम्भ में ये गुण क्षणिक रूप में प्रकट होते हैं, पर निरन्तर साधना—श्रवण, मनन और निदिध्यासन—के द्वारा ये स्थायी बनते हैं। श्री शंकराचार्य जी इसीलिए कहते हैं कि मुमुक्षु को आरम्भ में ही इन दोनों गुणों को गहराई से स्थापित करना चाहिए, क्योंकि यही उसकी समस्त साधना की नींव हैं।
जब मन विवेक और वैराग्य से दृढ़ होकर शुद्ध होता है, तब उसमें चित्तवृत्तियों का क्षय होता है, और वह आत्मस्वरूप में स्थिर होने लगता है। उस समय मन बाह्य विषयों से मुक्त होकर भीतर की ओर मुड़ता है और आत्मा के प्रकाश में लीन हो जाता है। यही अवस्था मुक्ति की ओर ले जाती है। इसलिए शंकराचार्य जी का यह उपदेश साधक को चेतावनी देता है कि वह केवल बाह्य कर्मकाण्डों या अनुष्ठानों पर निर्भर न रहे, बल्कि अपने मन की शुद्धि और अंतःगुणों की दृढ़ता पर ध्यान दे।
इस प्रकार, यह श्लोक आत्मज्ञान की साधना में विवेक और वैराग्य के महत्व को अत्यंत गहराई से दर्शाता है। मन का शुद्ध होना केवल इन गुणों से ही संभव है। जब मन निर्मल, स्थिर और निरासक्त होता है, तभी उसमें ब्रह्मज्ञान का उदय होता है। अतः जो बुद्धिमान मुमुक्षु है, उसे चाहिए कि वह अपने जीवन का प्रथम लक्ष्य इन गुणों की दृढ़ स्थापना बनाए, क्योंकि इन्हीं के माध्यम से मन मुक्त होकर आत्मा के साथ एकरूप होता है, और यही सच्ची मुक्ति का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!