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शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 178वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 178वां श्लोक"

"मनोमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

मनो नाम महाव्याघ्रो विषयारण्यभूमिषु । 

चरत्यत्र न गच्छन्तु साधवो ये मुमुक्षवः ॥ १७८ ॥

अर्थ:-मन नाम का भयंकर व्याघ्र विषय रूप वन में घूमता फिरता है। जो साधु मुमुक्षु हैं, वे वहाँ न जायँ।

इस श्लोक में आचार्य शंकर भगवान ने मन की भयंकर प्रवृत्ति का अत्यंत सुंदर और गूढ़ रूपक द्वारा वर्णन किया है। वे कहते हैं – “मन नाम का महाव्याघ्र विषय रूपी वन में विचरण करता है, अतः जो साधु और मुमुक्षु हैं, उन्हें वहाँ नहीं जाना चाहिए।” यहाँ मन को व्याघ्र अर्थात् बाघ की उपमा दी गई है, और विषयों को उस जंगल के समान बताया गया है जहाँ यह बाघ विचरता है। जिस प्रकार जंगल में प्रवेश करने वाला व्यक्ति यदि सावधान न हो तो व्याघ्र द्वारा भस्म कर लिया जाता है, उसी प्रकार जो साधक विषयों के वन में प्रवेश करता है, वह मन के विकारों द्वारा निगल लिया जाता है।

मन की यह प्रवृत्ति अत्यंत चंचल है। यह निरंतर इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य विषयों की ओर दौड़ता रहता है। जब यह किसी रूप, रस, गंध, स्पर्श या शब्द में आसक्त होता है, तब वह विषय-जाल में फँस जाता है और साधक का सारा विवेक नष्ट कर देता है। यह मन, जो साधन के मार्ग में सहायक बन सकता था, वही यदि विषयों की ओर प्रवृत्त हो जाए तो सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। यही कारण है कि शंकराचार्य इसे ‘महाव्याघ्र’ कहते हैं — ऐसा व्याघ्र जो साधक की समस्त साधना, तप और वैराग्य को एक ही झटके में निगल सकता है।

विषय रूपी यह वन अत्यंत आकर्षक प्रतीत होता है। प्रारंभ में यह सुखद और रमणीय लगता है, परंतु उसमें प्रवेश करने पर पता चलता है कि यह अनन्त दुःख, मोह और बन्धन का कारण है। इन्द्रियों को विषयों में रमने देना, मन को रसास्वादन की स्वतंत्रता देना, यह मानो व्याघ्र के मुख में हाथ डालने के समान है। जब तक साधक इस व्याघ्र से दूरी बनाकर नहीं चलता, तब तक आत्म-साक्षात्कार की संभावना नहीं होती। इसलिए आचार्य का निर्देश है कि मुमुक्षु – अर्थात् जो मोक्ष की तीव्र इच्छा रखता है – उसे इस विषय-वृत्त मन से दूर रहना चाहिए।

यह श्लोक केवल त्याग की शिक्षा नहीं देता, बल्कि चेतावनी देता है कि साधना-पथ पर चलने वाला यदि मन को अनुशासित न करे तो उसका सारा प्रयास व्यर्थ हो जाता है। मन जब विषयों में भटकता है, तो आत्मा से दूर ले जाता है। जब यह भीतर की ओर मुड़ता है, तब वही मन मुक्ति का साधन बनता है। इसलिए वेदान्त में बार-बार कहा गया है – “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।” अर्थात् मन ही बन्धन का कारण है और वही मोक्ष का साधन भी।

जो साधक इस महाव्याघ्र के स्वभाव को समझ लेता है, वह उसे सदा सतर्क दृष्टि से देखता है। वह विषयों से सम्पर्क में रहते हुए भी उनसे आसक्त नहीं होता। वह जानता है कि विषय बाह्य हैं, पर आत्मा तो सदा शुद्ध, निर्विकार और साक्षी रूप में विद्यमान है। अतः मन को विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करना ही साधना का सार है।

इस प्रकार, यह श्लोक केवल मन के दमन की नहीं, बल्कि उसकी दिशा परिवर्तन की प्रेरणा देता है। मन को यदि विषयों से हटाकर आत्म-विचार में लगाया जाए, तो वही मन मुक्ति का साधन बन जाता है। पर यदि उसे विषयों में भटकने दिया जाए, तो वह व्याघ्र बनकर साधक की आध्यात्मिक प्रगति को नष्ट कर देता है। यही इस श्लोक का गूढ़ तात्पर्य है — मुमुक्षु को सदा विषयों से सजग रहकर अपने मन को साधना-पथ पर स्थिर रखना चाहिए।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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