Total Blog Views

Translate

शनिवार, 22 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 179वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 179वां श्लोक"

"मनोमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

मनः प्रसूते विषयानशेषान् स्थूलात्मना सूक्ष्मतया च भोक्तुः ।

शरीरवर्णाश्रमजातिभेदान् गुणक्रियाहेतुफलानि नित्यम् ॥ १७९ ॥

अर्थ:-मन ही सम्पूर्ण स्थूल-सूक्ष्म विषयों को, शरीर, वर्ण, आश्रम, जाति आदि भेदों को तथा गुण, क्रिया, हेतु और फलादि को भोक्ता के लिये नित्य उत्पन्न करता रहता है।

विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने मन की रचनात्मक शक्ति और उसकी कल्पनात्मक प्रवृत्ति का अत्यंत गूढ़ विवेचन किया है। यहाँ वे बताते हैं कि मन ही वह सूक्ष्म कारण है जो इस समस्त अनुभवजन्य जगत की सृष्टि करता है। यह मन ही है जो स्थूल (दृश्य, स्पर्श्य) और सूक्ष्म (विचार, भावना, इच्छा) सभी प्रकार के विषयों को रचता और अनुभव कराता है। मन की ही कल्पना से शरीर, वर्ण, आश्रम, जाति आदि के भेद उत्पन्न होते हैं, और इन्हीं भेदों से मनुष्य अपने आपको एक सीमित सत्ता के रूप में देखने लगता है। इस प्रकार, मन स्वयं ही बन्धन का कारण बन जाता है।

जब मन बाह्य विषयों की ओर प्रवृत्त होता है, तब वह भेदभाव, नाम-रूप और अनुभव के अनेक रूप उत्पन्न करता है। यह मन ही है जो किसी को ब्राह्मण या शूद्र, गृहस्थ या संन्यासी, पुरुष या स्त्री, ज्ञानी या अज्ञानी के रूप में देखता है। वास्तव में ये सब विभाजन आत्मा में नहीं हैं, वे केवल मन की कल्पना हैं। आत्मा सदा एकरस, निर्विकार, नित्य और सर्वव्यापी है। किन्तु मन अपनी चंचलता और वासनाओं के कारण आत्मा के इस अद्वैत स्वरूप को न देखकर, अनेकता के भ्रम में पड़ जाता है। यही भ्रम संसार का मूल कारण बनता है।

आदि शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि मन ही गुणों, क्रियाओं, कारणों और परिणामों का निरन्तर सर्जन करता है। जब मन किसी क्रिया के साथ आसक्ति रखता है, तब वह कर्ता, भोक्ता और भोग्य का त्रिविध भेद उत्पन्न करता है। इसी से मनुष्य यह मानने लगता है कि "मैं यह कार्य कर रहा हूँ", "मुझे यह फल मिलेगा" आदि। वस्तुतः आत्मा न तो किसी क्रिया में प्रवृत्त होती है और न ही किसी फल की आकांक्षा रखती है। वह साक्षीमात्र है, किन्तु मन की कल्पना के कारण जीव स्वयं को कर्मफल का भोक्ता मान लेता है।

मन की यह प्रवृत्ति अनादि है — जब तक आत्मज्ञान नहीं होता, तब तक यह संसार-कल्पना चलती रहती है। शरीर, जाति, धर्म, आश्रम आदि का जो विविध अनुभव हमें होता है, वह सब मन की रचना है। जैसे स्वप्न में मन अपने ही सामर्थ्य से एक सम्पूर्ण जगत की सृष्टि कर देता है, जिसमें हम आनंद, भय, सुख, दुःख, कर्तापन और भोक्तापन का अनुभव करते हैं, वैसे ही जाग्रत अवस्था का संसार भी मन की ही उत्पत्ति है। अंतर केवल इतना है कि जाग्रत अवस्था में यह कल्पना सामूहिक रूप से अनुभव की जाती है, जबकि स्वप्न में व्यक्तिगत रूप से।

जब मन निर्मल और शांत होता है, तब यह अपने स्वामी — आत्मा — का यथार्थ स्वरूप प्रकट करने लगता है। परन्तु जब मन रजोगुण और तमोगुण से युक्त होता है, तब यह बाह्य विषयों की सृष्टि करके जीव को मोहजाल में फँसा देता है। इसलिए शास्त्र बार-बार कहते हैं कि मन का निग्रह ही मोक्ष का मार्ग है। "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" — मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण यही मन है। जब यह मलिन होता है, तब बन्धन उत्पन्न होता है; जब यह शुद्ध, विरज और निर्विकल्प होता है, तब मोक्ष का अनुभव होता है।

अतः इस श्लोक का सार यह है कि सम्पूर्ण जगत, उसके भेद-भाव, अनुभव, कर्तापन और भोक्तापन – ये सब मन की उत्पत्तियाँ हैं। आत्मा सदा नित्य, शुद्ध और अविकार है। जो साधक मन को समझ लेता है, उसके पार चला जाता है, वही अद्वैत सत्य का अनुभव करता है और जान लेता है कि न शरीर सत्य है, न जाति, न गुण, न कर्म — केवल ब्रह्म ही सत्य है, बाकी सब मन की कल्पना मात्र है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in