"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 180वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
असङ्गचिद्रूपममुं विमोह्य देहेन्द्रियप्राणगुणैर्निबध्य । भ्रमयत्यजस्त्रं अहंममेति मनः स्वकृत्येषु फलोपभुक्तिषु ॥ १८०॥
अर्थ:-इस असंग चिद्रूप आत्मा को मोहित करके तथा इसे देह, इन्द्रिय, प्राणादि गुणों से बाँध कर, यह मन ही इसको 'मैं-मेरा' भावसे अपने कर्म और उनके फलोपभोग में निरन्तर भटकाता है।
शंकराचार्य इस श्लोक में मन की मोहक और बन्धनकारी शक्ति का सूक्ष्म विवेचन करते हैं। वे कहते हैं कि यह मन ही है जो असंग, चिद्रूप, निर्मल आत्मा को देह, इन्द्रिय, प्राण और गुणों से जोड़कर उसमें ‘अहं’ और ‘मम’ का भ्रम उत्पन्न कर देता है। आत्मा स्वभावतः शुद्ध, साक्षी, नित्य और निर्लेप है — वह किसी कर्म, विचार या गुण से बँधी नहीं है; किन्तु जब मन उसमें ‘मैं’ और ‘मेरा’ का संकल्प कर देता है, तब वह आत्मा स्वयं को शरीर और इन्द्रियों से युक्त जीव मान लेती है। यही अज्ञान का आरम्भ है, और यही संसार-बन्धन की जड़ है।
मन की यह मायिक प्रवृत्ति अत्यन्त सूक्ष्म है। यह मन ही आत्मा को देहाभिमान के जाल में बाँध देता है। शरीर की भूख-प्यास, इन्द्रियों की वासना, प्राण की गति, गुणों की वृत्तियाँ — सब मन के द्वारा आत्मा पर आरोपित कर दी जाती हैं। आत्मा जो साक्षी मात्र है, वह जब मन के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब ‘मैं खा रहा हूँ’, ‘मैं देख रहा हूँ’, ‘मैं दुखी हूँ’ — ऐसे अनुभव करता है। वास्तव में ये सारे अनुभव मन के हैं, आत्मा के नहीं। परन्तु मन की मोहिनी शक्ति इतनी प्रबल है कि विवेकहीन जीव इस भेद को पहचान नहीं पाता और उसी भ्रम में जीवन भर कर्म करता रहता है।
मन, आत्मा को बाँधने के बाद, उसे अपने ही रचित कर्मों और उनके फलों में निरन्तर घुमाता रहता है। यह कर्म-फल का चक्र असंख्य जन्मों तक चलता है। जब तक ‘मैं कर्ता हूँ’ और ‘मुझे इसका फल मिलेगा’ — यह भ्रान्ति बनी रहती है, तब तक मोक्ष असम्भव है। मन अपने द्वारा उत्पन्न कर्मों में ही आत्मा को फँसा देता है और फिर भोग के रूप में उसे उनके परिणामों का अनुभव कराता है। इस प्रकार यह मन ही संसार का सर्जक, धारक और भ्रम का मूल कारण है।
आत्मा वास्तव में असंग है — न उसे कुछ बाँध सकता है, न वह किसी से बँध सकती है। जैसे आकाश पर बादलों का आना-जाना होता है परन्तु वह उनसे कभी भीगता नहीं, वैसे ही आत्मा पर मन, वासना, कर्म और भोग का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ता। पर जब अज्ञानवश आत्मा स्वयं को मन के साथ एक कर लेती है, तब वह अपने ही स्वरूप को भूल जाती है। यह विस्मृति ही संसार कहलाती है।
इसलिए साधक को चाहिए कि वह मन की इन कल्पनाओं से सावधान रहे। विवेक और ध्यान के द्वारा उसे यह पहचानना चाहिए कि ‘मैं देह नहीं, मैं मन नहीं, मैं प्राण नहीं — मैं तो शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ।’ जब यह साक्षात्कार दृढ़ हो जाता है, तब मन की सारी मोहिनी शक्ति नष्ट हो जाती है। मन तब आत्मा के अधीन होकर शांत हो जाता है, और वही स्थिति मुक्ति कहलाती है।
अतः शंकराचार्य इस श्लोक के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि मन ही बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण है। जब यह मन अविद्या में लिप्त रहता है, तब बन्धन उत्पन्न होता है; और जब यह आत्मा में लीन होकर शुद्ध होता है, तब वही मन मोक्ष का साधन बन जाता है। इस प्रकार साधक का प्रयत्न मन को शुद्ध, निरहंकारी और आत्माभिमुख बनाने में होना चाहिए — तभी असंग चिद्रूप आत्मा अपनी स्वाभाविक मुक्तावस्था को पुनः प्राप्त करती है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!