"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 181वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अध्यासदोषात्पुरुषस्य संसृति-
रध्यासबन्धस्त्वमुनैव कल्पितः । रजस्तमोदोषवतोऽविवेकिनो जन्मादिदुःखस्य निदानमेतत् ॥ १८१ ॥
अर्थ:-अध्यास-दोष से ही पुरुष को जन्म-मरण रूप संसार होता है और यह अध्यास का बन्धन इसीका कल्पित किया हुआ है तथा रज-तम आदि दोषयुक्त अविवेकी पुरुष के लिये यह (अध्यास) ही जन्मादि दुःख का मूल कारण है।
इस श्लोक में श्री शंकराचार्य जी ने मनुष्य के समस्त दुःख, बन्धन और संसार की मूल जड़ — अध्यासदोष — को स्पष्ट किया है। “अध्यास” का अर्थ है — अपने से भिन्न वस्तु में अपने का आरोप कर देना, अर्थात् जो वस्तु ‘न मैं हूँ’ उसको ‘मैं हूँ’ समझ लेना। यही भ्रम जीव को आत्मस्वरूप से दूर कर देता है। आत्मा तो असंग, चैतन्यस्वरूप और सदा मुक्त है, परन्तु जब इस पर देह, मन, बुद्धि आदि का अध्यास हो जाता है, तब जीव अपने को सीमित, कर्ता, भोक्ता, दुःखी और बँधा हुआ समझने लगता है। यही भूल या अज्ञान — अध्यासदोष — ही संसार का कारण है।
शंकराचार्य कहते हैं कि इस अध्यास के कारण ही पुरुष को संसार, अर्थात् जन्म-मरण का चक्र प्राप्त होता है। वास्तव में आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, वह अजन्मा और नित्य है, परन्तु देह के साथ तादात्म्य के कारण वह ‘मैं जन्मा’, ‘मैं मरा’, ‘मैं दुखी हूँ’ — ऐसा मान बैठती है। यह मान्यता ही संसार की अनुभूति का आरम्भ है। अतः वे कहते हैं — “अध्यासबन्धस्त्वमुनैव कल्पितः” — अर्थात् यह अध्यासजन्य बन्धन उसी जीव ने स्वयं कल्पना से बना लिया है। आत्मा तो साक्षी मात्र है; उसे बन्धन का कोई स्पर्श नहीं होता। यह बन्धन केवल कल्पना से उत्पन्न है, जैसे रस्सी में सर्प की कल्पना कर लेने से भय उत्पन्न हो जाता है, पर वास्तव में रस्सी कभी सर्प नहीं बनती। उसी प्रकार आत्मा कभी बँधती नहीं, परन्तु अज्ञानवश जीव अपने को बँधा मान लेता है।
आचार्य आगे कहते हैं कि यह अध्यास रज और तम के दोषों से युक्त अविवेकी पुरुष में ही होता है। रजोगुण क्रियाशीलता और आसक्ति को उत्पन्न करता है, जबकि तमोगुण आलस्य, अज्ञान और मोह का कारण होता है। जब मनुष्य इन गुणों से प्रभावित होता है, तब उसका विवेक नष्ट हो जाता है — वह यह पहचान नहीं पाता कि ‘मैं देह नहीं, बल्कि देह का साक्षी आत्मा हूँ’। इस अविवेक के कारण वह विषयों में राग-द्वेष करता है, कर्मों में उलझता है, और फलस्वरूप जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है। इस प्रकार अध्यास ही दुःख का मूल स्रोत बन जाता है।
जैसे सूर्य बादलों से ढक जाने पर चमकता हुआ प्रतीत नहीं होता, वैसे ही आत्मा भी रज-तम के आवरण से ढक जाती है और अपनी नित्यता, पवित्रता, आनन्दता को प्रकट नहीं कर पाती। तब जीव अपने को सीमित मानकर कर्मों में फँस जाता है। यह अध्यास-जन्य अज्ञान ही उसे “कर्तृत्व” और “भोक्तृत्व” का भाव देता है, जिससे समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है।
इसलिए शंकराचार्य का उपदेश है कि विवेक और वैराग्य के द्वारा इस अध्यास का नाश करना ही मोक्ष का मार्ग है। जब साधक सतत आत्मविचार करता है — “मैं कौन हूँ?” — तब धीरे-धीरे यह मिथ्या अध्यास समाप्त होता है और आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है। तब उसे ज्ञात होता है कि वह न देह है, न इन्द्रिय, न मन — बल्कि नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चैतन्यस्वरूप आत्मा है। उसी क्षण सभी बन्धन मिट जाते हैं।
इस प्रकार, यह श्लोक सिखाता है कि संसार और दुःख का कारण बाह्य परिस्थितियाँ नहीं, बल्कि अंतःस्थ अज्ञान और अध्यास है। जब यह अज्ञान समाप्त होता है, तब जीव अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है और मुक्त हो जाता है। यही अद्वैत वेदान्त का सार है — बन्धन मिथ्या है, आत्मा सदा मुक्त है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!