"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 182वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अतः प्राहुर्मनोऽविद्यां पण्डितास्तत्त्वदर्शिनः ।
येनैव भ्राम्यते विश्वं वायुनेवाभ्रमण्डलम् ॥ १८२ ॥
अर्थ:-अतः तत्त्वदर्शी विद्वान् मन को ही अविद्या कहते हैं; जिसके द्वारा वायु से मेघ-मण्डल की भाँति यह सम्पूर्ण विश्व भ्रमाया जा रहा है।
इस श्लोक में भगवद्पाद आचार्य शंकर यह बताते हैं कि मन ही वास्तविक रूप से अविद्या है, और इसी के कारण सम्पूर्ण जगत का भ्रम उत्पन्न होता है। तत्त्वदर्शी पण्डितों का यह मत है कि मन ही उस अज्ञान का स्वरूप है, जिसके माध्यम से यह विविधता, यह बहुलता और यह संसार की माया उत्पन्न होती है। जैसे वायु की गति से आकाश में मेघमण्डल चलता और घूमता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही मन की चंचलता और कल्पना से यह विश्व चलता हुआ, विविध रूपों में प्रकट होता हुआ दिखाई देता है। वस्तुतः न तो मेघों की गति आकाश की है, न संसार का परिवर्तन आत्मा का है। केवल मन की गति से ही यह सब प्रतीत होता है।
यहाँ ‘अविद्या’ का अर्थ केवल ज्ञान के अभाव से नहीं, बल्कि गलत ज्ञान से भी है — जो आत्मा के स्थान पर देह, इन्द्रिय, मन और जगत को सत्य मान लेता है। मन ही इस भ्रांति का केंद्र है। जब मन स्थिर नहीं होता, तो यह बाह्य विषयों की ओर बहता है और संसार के विविध नाम-रूपों में उलझ जाता है। यह मान लेता है कि ‘मैं शरीर हूँ’, ‘मैं सुखी या दुःखी हूँ’, ‘यह मेरा है’ — और इसी से समस्त बन्धन आरम्भ होता है। परन्तु जब मन शांत और विवेकयुक्त होता है, तब यह अपनी वास्तविक प्रकृति — चैतन्य आत्मा — की झलक पाने लगता है।
मन की यह प्रवृत्ति बड़ी सूक्ष्म है। यह बाह्य विषयों से प्रेरित होकर निरन्तर संकल्प-विकल्प में लगा रहता है। यही निरन्तर प्रवाह ‘संसार’ कहलाता है। जैसे हवा जब स्थिर होती है तो आकाश में कोई गति नहीं दिखती, पर जब वह चलती है तो मेघ चलने लगते हैं — वैसे ही जब मन की गति रुक जाती है, तब आत्मा की एकता का अनुभव होता है; पर जब यह चंचल होता है, तब आत्मा से भिन्न जगत का भ्रम उत्पन्न होता है। इसलिए कहा गया कि संसार वस्तुतः मन की कल्पना मात्र है, न कि आत्मा की सृष्टि।
तत्त्वदर्शियों ने अनुभव से यह जाना कि मन ही मूल अविद्या है, और यह अविद्या ही सब द्वैत और भेद का कारण बनती है। आत्मा तो सदैव एकरस, अखण्ड और साक्षी है — उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन केवल मन में होता है, और मन की इस गति के कारण ही आत्मा ‘कर्ता’, ‘भोक्ता’ और ‘ज्ञाता’ के रूप में प्रतीत होती है। इस प्रकार मन आत्मा पर आरोपित होकर संसार का अनुभव कराता है, जो वस्तुतः माया है।
जब साधक इस सत्य को समझ लेता है कि मन ही अविद्या का रूप है, तब वह इसे नियंत्रित करने का प्रयत्न करता है। शास्त्र कहते हैं कि मन के शुद्ध और शांत होने पर अविद्या का नाश होता है। जैसे दीपक के प्रकाश में अन्धकार अपने आप मिट जाता है, वैसे ही आत्मज्ञान के प्रकाश में मन की अविद्या विलीन हो जाती है। तब व्यक्ति देखता है कि वास्तव में कोई जगत नहीं, कोई बन्धन नहीं, केवल एक अद्वैत ब्रह्म ही है।
इसलिए शंकराचार्य का यह उपदेश गूढ़ है — संसार को बदलने की नहीं, मन को समझने की आवश्यकता है। जब मन को जाना जाता है, तब ज्ञात होता है कि यह सब भ्रम उसका ही विस्तार है। मन के शांत होने पर आत्मा का स्वरूप स्वतः प्रकट हो जाता है, जैसे वायु रुकने पर मेघमण्डल स्थिर हो जाता है और आकाश अपनी निर्मलता में प्रकट हो जाता है। यही मुक्ति की स्थिति है — जहाँ न अविद्या रहती है, न संसार का भ्रम, केवल आत्मा का शुद्ध, अचल, साक्षी स्वरूप रहता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!